‘Dharti Ke Sabse Pyare Bhookhand Ho Tum’, prose in Hindi by Shweta Rai

आजकल मन की यात्रा पर हूँ। इस आयोजन के पीछे प्रयोजन यह है कि कुछ विगत पलों को भूलकर आगत के लिए जगह बना सकूँ, और इसी उपक्रम में याद आता है कि कल है तुम्हारा जन्मदिन… और स्वतः ही रुक जाती है मेरी यात्रा। आँखें वाचाल हो उठती हैं, मन खिलखिलाने लगता है, रात थोड़ी और गहरी लगने लगती है जबकि अभी कुछ दिन पूर्व ही बीती है अमावस्या…

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स्मृतियों की आवाजाही में तुम मुझे धरती के एक भूखंड से प्रतीत होते हो, जिसपर फैली हुई हैं मान सम्मान की पहाड़ियाँ, निष्ठा का विशाल मैदान और प्रेम के जंगल। पूरे भूखंड पर गूंजती रहती हैं महालयों से आने वाली स्वर लहरियां और एक निश्चित अंतराल पर दिखती रहती हैं आनन्द की कलकल बहती नदियां…

मैं दूर हूँ तुमसे पर अपने मन महल की सबसे ऊपरी मंज़िल की खिड़की से देख पा रही हूँ तुमको!

जी रही हूँ तुम्हारे साहचर्य को, सुन रहीं हूँ तुम्हारी धड़कनों को और अपने भीतर महसूस कर रही हूँ तुम्हारे समूचे व्यक्तित्व को स्पंदित होते…

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तुम्हारे सानिध्य मात्र से खिल जाती हैं मेरी भावनाएँ।

गगन के आँगन में बादलों ने मचा रखी है धमाचौकड़ी, चाँद ठिठका पड़ा है, जिसे देख मैंने अंदाज़ा लगाया है कि शायद इस समय हम दोनों एक ही मनःस्थिति को जी रहे हों…

चाँद को भी वीराना लग रहा है अपना आँगन और मेरा मन भी अपरिचित सा हो गया है मेरी देह से। मैं याद करती हूँ विगत बरसों को, जिनमें समाहित है श्रद्धा, निष्ठा, समग्रता और समर्पण की भावनाएँ। मन मुस्कुरा उठता है, और खिला खिला लगता है भूखंड का वातावरण भी।

वहां मैदानों के कुछ हिस्से में खेत भी हैं जहाँ रोपी गई हैं आशाएँ, जो सौंदर्य हैं उस भूखंड की, क्योंकि ये अपने साथ से ही आच्छादित कर देती हैं उसको हरियाली से और बढ़ा देती हैं उसका जीवन सौंदर्य..

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मन इन खेतों के बीच सरपट भाग रहा है। सब कुछ जाना पहचाना सा है। कोई भय नहीं है, कोई शंका नहीं है।

निर्मल निश्छल सानिध्य में दौड़ते भागते जब कामनाओं की नदी के तीरे थककर बैठती हूँ तो भावनाओं से सुरभित हवा का स्पर्श जीवनदायी लगता है जो अपनी पलकों पर विश्वास की शीतलता के भार से आच्छादित वहां बह रही है…

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अचानक घड़ी के अलार्म से टूटती है तन्द्रा, खीझती हूँ पर अगले ही पल मुस्कुरा उठती हूँ..

रात का चौथा पहर है! बादलों ने मान ली है अपनी हार, चाँद ने जमा लिया है पूरे आकाश पर अधिकार। स्नेहिल चाँदनी बरस रही है, जिसके धवल प्रकाश में वो पूरा भूखंड कृष्णमयी लग रहा है..

प्रेमिल छुअन से भरपूर है चाँदनी, जिसने अपने सम्मोहन में मुझे बाँध लिया है। ऐसा सम्मोहन कि पलक झपने का क्षणांश भी जेठ की दुपहरी सा दग्ध लगने का भ्रम देता है…

भोर हो गई है। पंछियों के कलरव से गुंजायमान है पूरा भूखंड! बुद्धि और विवेक का प्रकाश पहाड़ की चोटियों को स्वर्णिम कर रहा है और धैर्य की पत्तियों से लदे, संयमी लताओं से लिपटे, एकाग्रता के वृक्ष चैतन्य लग रहे हैं..

मैं इस भूखंड की ख़ूबसूरती के पाश में बंधती जा रही हूँ।

नीरद बूंदों में डूबी दुर्वायें, किलकते सुमन, चटकती कलियों को अपलक निहारते हुए सोच रही हूँ कि अपने इस रूप में कितने सहज और सरल हो तुम..

भोर ने घूंघट सरका दिया है। प्राची में बंधे हैं कनक बंदनवार। रश्मियाँ नृत्यरत हैं और मलयानिल झूमते हुए समूची सृष्टि से कह रही है-

शुभ हो जन्मदिन!

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सोच रही हूँ कि यहीं पर रोक दूँ मन की यात्रा। लाव लश्कर के साथ डाल लूँ एक पड़ाव। खुला छोड़ दूँ मनमहल की खिड़की के साथ साथ महल के सभी दरवाजों को।

भर लूँ इस अकूत सौंदर्य की गंध को अपनी साँसों में जो जीवन का हर्ष है, सम्बन्धों का महोत्सव है, आत्मा का शृंगार है।

तुम पर यूँ ठहर जाने मात्र से ही विकारों का निर्मूलन होगा, निराशाओं की हार होगी और असीमित क्षमताओं का प्रसार होगा। और मैं बंध जाऊँगी उस भूखंड से जो मान सम्मान के पहाड़, आनन्द की नदी, निष्ठा के मैदान व हर्ष के झरनों को समेटे, धरती का सबसे प्यारा भूखंड है।

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श्वेता राय
विज्ञान अध्यापिका | देवरिया, उत्तर प्रदेश | ईमेल- [email protected]