सुबह के पौने ग्यारह बजे रोड-रैश खेलते हुए आता विक्रम ऑटो पकड़ती हूँ और ड्राइवर सीट के पिछले हिस्से से सटी सीट पर टिक जाती हूँ।  टिकना यहाँ उपयुक्त शब्द है क्योंकि ग़ाज़ियाबाद के ऑटो में ‘बैठने’ की लक्ज़री तो किस्मत वालों को मिलती है। बहरहाल, आधा ध्यान घड़ी की सुई पर है और आधा सामने लगे लाल-हरी चोली का एक सिरा मुँह में दबाये लड़की के चित्र पर। नीचे लिखा है – ‘सिर्फ तुम’। अब ये वो लड़की अपने किसी प्रिय को कह रही है, वो प्रिय, लड़की को कह रहा है, या यह ऑटो मुझे, इस विचार में कुछ समय जाता है। तभी ऑटो वाला तेज़ आवाज़ में गाना चला देता है – “जे तू इस वारी मैनु ना करदी, ते मैं कर लाँ सुसाइड तेरे सामने”। पंजाबी भाषा की सीमित समझ में मैं यही एक लाइन समझ पाती हूँ और सोचने लग जाती हूँ कि कितने ही लड़कों ने यह गाना शायद गा दिया हो किसी लड़की के लिए और कितनी ही लड़कियां फिर ना करते-करते रह गयी हों। कौन लिखता है ये गाने?

तेज़ झटके से ऑटो का टायर एक गड्ढे में धंसता है और मेरे मन का गियर गाने से बदल सड़क की दुर्दशा पर आ ठहरता है। अब मैं म्यूनिसपैलिटी से लेकर प्रधानमंत्री तक सबको कोस रही हूँ और सोच रही हूँ कि हिम्मत कर IAS की तैयारी कर ही ली होती। हम सबका मन इस बात में गहन विश्वास रखता है कि हम दुनिया बदल सकते हैं, बशर्ते हमें साधन मिल जाएं। खैर, देश दुनिया की राजनीति पर तरेर रखी आंखें पड़ती हैं एक दुबली-पतली, पीली साड़ी लपेटे औरत पर जो अभी-अभी ऑटो पर चढ़ी है। उसकी गोद में एक एक-डेढ़ वर्ष का शिशु है , और साथ एक करीब तीन साल का बालक और है। वो बार-बार अपने सिर का पल्लू संभाल रही है। बड़ा बालक लगातार उसकी साड़ी खींच रहा है और वो भाव-शून्य हो उसे अलग करती जा रही है। उसका ध्यान कहाँ है यह कहना मुश्किल है। अब ऑटो में गाना बज रहा है – “तूने ऐसी मोहन खेली होरी, कर दी चूनर मोरी लाल लाल”। मेरा पूरा ध्यान उस औरत की साड़ी पर है। मैं सोच रही हूँ कि साड़ी भी अलग ही बंधन बनाया होगा किसी ने औरतों के लिए। एक बार बांधें तो आसानी से निकल ही ना पाएं। ऑटो फिर एक तेज़ झटका खाता है पर उस औरत के माथे पर शिकन भी नहीं। वो अपने बच्चे और पल्लू सही स्थान पर टिकाए रखने में व्यस्त है। वो क्या सोचती होगी? म्यूनिसपैलिटी को गाली देती होगी कि नहीं? IAS अफसर बन दुनिया बदलने का ख़्वाब तो देखा ही होगा ना कभी न कभी? “तूने ऐसी मारी पिचकारी, रंग दी चूनर मोरी…”। मैं सीट के इस ओर बैठी इन प्रश्नों में खो गयी हूँ, खो गयी हूँ उस औरत की भावहीनता में। खो गयी हूँ यह सोचते कि आखिर वो क्या सोचती होगी? क्यों उसे सड़क के गड्ढे हिला नहीं पा रहे? और वो दूसरी ओर बैठे बाहर ताक रही है। कभी पाँव हिला गोदी में लेटे बालक को खिला लेती है, कभी बाँह पकड़ दूसरे बालक को पास खींच लेती है, पर ज़्यादातर अपनी साड़ी के पल्लू को सिर पर टिकाए रखने में ही व्यस्त है।

इन दो सीटों के बीच मैंने दो दुनिया का फासला देखा है।

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