गुलज़ार का उपन्यास ‘दो लोग’ विभाजन की त्रासदी के बारे में है—त्रासदी भी ऐसी कि इधर आज़ादी की बेला आने को है, और उधर ब्रिटिश नक़्शानवीस विभाजित होने वाले दो देशों, भारत व पाकिस्तान, की हदें उकेरने में बेहद मुब्तिला थे। जो एक अटूट था, वह टूटकर दो ऐसे मुल्क बना जिनके बीच का फ़ासला फिर कभी न पाटा जा सका। करोड़ों लोग रातोंरात बेघरबार हुए। कोई डेढ़ेक करोड़ लोग—पुरुष, स्त्री, बच्चे, जवान और बूढ़े—उस नियति के शिकार हुए जो उन्होंने न चुनी थी। अटकल है कि इस तक़सीम से जाई ख़ूनी वहशियत ने कोई दो करोड़ जानें लील लीं। — पवन के. वर्मा

किताब हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इण्डिया से प्रकाशित हुई है, प्रस्तुत है एक किताब अंश— 

हाईवे पर, एक सुनसान-सी जगह पर ट्रक खड़ा करके, जाफ़र मियाँ ने डाँट दिया। और निकाल के सामने बिठा लिया।

“बच गया तू। जानता नहीं बाहर क्या हो रहा है?” फिर ख़ुद ही पूरी ख़बर सुना दी। और डपट के बोले, “ट्रेन से हर्गिज़ मत जाइयो। ट्रेन रास्ते में रोक-रोक लोग, सिक्खों को पकड़ पकड़ के झटका रहे हैं। जिन्हें सिक्खों की दुकानें नज़र आती हैं, जिन पर खण्डा बना हुआ है, सब जलायी जा रही हैं।”

एक वक़्फ़ा आया। फिर बोले।

“कहाँ जा रहा था?”

“दिल्ली!”

“दिल्ली में क्या करता है तू?”

डरते-डरते उसने कहा, “ऑटो पार्टज़ की दुकान है।”

“खण्डा बना है दुकान के बोर्ड पर?”

“नहीं! लेकिन ‘सिंह ऑटो पार्टज़’ नाम है।”

एक बड़ा लम्बा वक़्फ़ा गुज़रा। फिर अचानक बोले।

“तेरे बाल काट दूँ? फिर आ जाएँगे।” उसका हाथ पगड़ी पर चला गया। मियाँ की आँखों में एक चमक आयी।

“डर नहीं, मैं सरदारों की बहुत इज़्ज़त करता हूँ। मेरे भी दोस्त हैं। मैं भी वापस ही जा रहा हूँ कर्नाल तक। चल कहीं छोड़ दूँगा।”

जाफ़र मियाँ बड़े सुलझे हुए और सब्र वाले इंसान थे। इस मुल्क की ऊँच-नीच वो देख चुके थे। एक तजुर्बे की बात कही।

“हमें भी एक सिख ने पनाह न दी होती, तो पाकिस्तान चले गए होते। सन् 47 में जब दिल्ली में फ़सादात शुरू हुए और हालात पर क़ाबू पाना मुश्किल हो रहा था, तो सरदार पटेल ने पुराने क़िले में मुस्लमानों के कैम्प लगवा दिए। जो मुस्लमान पाकिस्तान जाना चाहते थे, उन्हें मिल्ट्री की हिफ़ाज़त में वहाँ लाकर रखा गया और मिल्ट्री की हिफ़ाज़त में ही बॉर्डर पार पहुँचा दिया गया। हमने भी वही किया था। कैम्प में पनाह ले ली थी। मेरे अब्बा के एक दोस्त थे। सरदोल सिंह! स्कूल का याराना था। उन्हें पता चला तो, पुराने क़िले के रेफ़्यूजी कैम्प से ढूँढ के, मना के अपने घर ले गए हमें। मिल्ट्री वालों की हिफ़ाज़त में। रसूख वाले आदमी थे वो। हमारे अब्बा भी कांग्रेसी थे। फिर हम यहीं रह गए हिन्दुस्तान में। जब तक नेहरू थे, हमारे अब्बा को डर नहीं लगा। लेकिन उनकी मौत के बाद उन्हें भी डर लगने लगा था। कहते थे, ‘इस मुल्क में पता नहीं चलता कब हाण्डी गुड़गुड़ाने लगे। यहाँ की सियासत चौपाल के हुक़्क़े की तरह है, जिसके मुँह में नली आए, वही ज़मींदार बन बैठता है।’…”

जाफ़र मियाँ जितने नज़र आते थे, उससे ज़्यादा जानते थे।

जाफ़र मियाँ कुछ रुककर फिर बोले, “अभी तो कई बार ये मुल्क टूटेगा, जुड़ेगा। सदियों पुरानी आदत है हुकमरानों की। कोई दूसरा आ जोड़ दे तो जोड़ दे, ख़ुद नहीं जुड़ेंगे। आ के ख़ुद जुड़ के रहना है तो जम्हूरियत क्या है, सीखना पड़ेगा।”

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कृष्णा सोबती के उपन्यास 'ज़िन्दगीनामा' से किताब अंश

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गुलज़ार
ग़ुलज़ार नाम से प्रसिद्ध सम्पूर्ण सिंह कालरा (जन्म-१८ अगस्त १९३६) हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध गीतकार हैं। इसके अतिरिक्त वे एक कवि, पटकथा लेखक, फ़िल्म निर्देशक तथा नाटककार हैं। गुलजार को वर्ष २००२ में सहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष २००४ में भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है।