सीढ़ियों का रास्ता बहुत पतला था और दिन में भी अंधेरा छाया रहता था। अंधेरा इसलिए अधिक था, कि मैं सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते महसूस कर रहा था कि मेरे पांव वापस लौट जाना चाहते हैं। फोन पर जब उनसे मैं बातें कर रहा था, तब भी सोच रहा था कि अचानक फोन रख दूँ, बातें बंद कर दूँ। उनकी बातों में, बातें करने के ढंग में, लहजे में, उच्चारण में काफी मिठास और इतनी एरिस्टोक्रेसी थी।

एरिस्टोक्रेसी से मुझे बराबर भय लगता रहा है। धन-संपत्ति से मुझे कभी भय नहीं लगा है। बड़ी-बड़ी कंपनियों के डायरेक्टरों के शीततापअनुकूलित कमरों में निर्भय-निःशंक घुस जाता हूँ। अल्शेसियन और टेरियरों से मेरा परिचय है। मगर अभिजात्य से मुझे डर लगता है। बचपन देसी रियासतों में बीता है, और तब बीता है, जब रियासतों के मालिक और नवाब शिकार खेलते थे, और यूरोप जाते थे, और गवैयों और पहलवानों को पालते थे, बिजनेस फर्म नहीं कायम करते थे, कांग्रेसी टिकट से एलेक्शन में नहीं खड़े होते थे, गांधी टोपी नहीं पहनते थे।

अब वह समय नहीं रह गया है, मगर एरिस्टोक्रेसी से मुझे डर लगता है। इसलिए, फोन पर आइरीन से बातें करते वक्त भी मुझे डर लग रहा था और अब, ये तंग और अंधेरी सीढ़ियां चढ़ते वक्त भी मुझे डर लग रहा है। पता नहीं, मेरी मामूली-सी शक्ल, और मेरे मामूली से कपड़ों को देख आइरीन पर क्या प्रभाव पड़ेगा। मगर, अब तो चार-छह सीढ़ियां और हैं।

कॉलबेल बजाने पर दो बातें हुईं। अंदर के किसी कमरे से कोई बड़ा-सा खूबसूरत कुत्ता दो-तीन बार भूंककर चुप हो गया। और, नौकरानी की तरह दिखती हुई एक औरत ने दरवाजा आधा खोला, और सिर बाहर निकालकर पूछा, किसको खोजता है।

मेरा नाम, दयानंद है, मिस आइरीन ठाकुर को मिलने आया है, -कहना खत्म भी नहीं किया था कि दरवाजा बंद हो गया, नौकरानी की तरह दिखती हुई एक औरत का चेहरा गायब हो गया। सामने बंद दरवाजा था, और दरवाजे पर प्लास्टिक की प्लेट पर लिखा था, मिसेज कैथरिन ठाकुर। यानी, आइरीन की माँ। आइरीन की माँ फ्रांस की या बेल्जियम की थी या चेकोस्लोवाकिया की हैं, ऐसा मुझे पहले से पता है। आइरीन के पिता उच्च वंशीय ब्राह्मण थे, और वायु सेना में उच्चपदस्थ अफसर थे। पिता अब नहीं हैं। माँ भी नहीं हैं। सिर्फ प्लास्टिक की नेमप्लेट है।

आइरीन की माँ नहीं है, यह सोचकर अचानक मुझे बहुत दुख हुआ। बड़ी तेज इच्छा हुई कि एक बार उनसे मिल पाता। उनकी आंखों को, और उनके चेहरे को और उनकी बातों को देखकर सुनकर यह समझने की कोशिश करता कि उनकी आत्मा में कौन-सी शक्ति थी, जो उन्हें यह साहस दे सकी कि अपना सारा कुछ त्यागकर, खत्म करके वे यूरोप से चली आईं, हरदम के लिए चली आईं। या, शक्ति उनमें नहीं थी, आइरीन के पिता में थी?

दरवाजा फिर खुला, और चौबीस-पच्चीस की एक लड़की ने मुझसे कहा, “अंदर आ जाइए।”

“अंदर आ जाइए” – चौबीस-पच्चीस की एक लड़की ने मुझसे कहा, और मुस्कराई। इस मुस्कराहट में नयापन नहीं था, एरिस्टोक्रेसी भी नहीं थी। वही था, जो बड़े होटलों या बड़े दफ्तरों के रिसेप्शनिस्ट की मुस्कराहटों में होता है। लगता है कि यह मुस्कराहट मेरी चिर-परिचित है। लगता है कि इस व्यक्ति से पहले भी मुलाकात हो चुकी है। लगता है, और हम अचानक ही, बहुत आराम और हल्कापन और ताजगी महसूस करने लगते हैं। मैंने यह सब महसूस नहीं किया, क्योंकि, यह मुस्कराहट खुद मेरा पेशा है। लड़की किनारे हटती हुई बोली- “आप बैठिए, दीदी बाथ ले रही हैं, दस मिनट में आ जाएंगी।”

ड्राइंगरूम इतना बड़ा नहीं था। मेरे ठीक सामने एक लंबा सोफा पड़ा था और सोफे पर तीन लड़कियां जापानी गुड़ियों की तरह बैठी थीं। बाईं तरफ दूसरा सोफा पड़ा था, जिस पर दो प्रौढ़ व्यक्ति बैठे थे। दाईं तरफ तीसरा सोफा था, जिस पर एक युवक अकेला बैठा था। तीन सोफे पर तीन लड़कियां थीं, और बीच में एक गोल टेबुल था। टेबुल पर चांदी के एक पुराने गुलदस्ते में चांदी की एक नंगी लड़की खड़ी थी, और उसका एक हाथ जांघों की रक्षा कर रहा था, ऊपर उठे हुए दूसरे हाथ में गुलाब के चंद ताजा फूल थे। दोनों प्रौढ़ व्यक्तियों ने एक साथ कहा- “क्लब का वक्त हो रहा है, हम लोग अब चलें।”

जापानी गुड़ियों की तरह दिखती हुई तीन लड़कियां मुस्कराईं, और उठकर खड़ी हो गईं। अकेले बैठे हुए युवक ने मुझसे कहा- “बैठिए। दीदी अभी आती ही होंगी। आपके लिए वेट कर रही थीं। फिर बाथ लेने चली गईं।”

प्रौढ़ व्यक्ति मेरी बगल से गुजरते हुए, और तीखी निगाहों से मुझे देखते हुए, कमरे से बाहर चले गए। सीढ़ियों से नीचे उतर गए। कमरे में दो दरवाजे थे, जैसा अक्सर ड्राइंगरूम में होता है। दूसरे दरवाजे से तीनों लड़कियां चली गईं। उनके पीछे वह युवक भी चला गया। सिर्फ, मुझे अंदर ले आने वाली लड़की दरवाजे के पास खड़ी रही। मैं एक कुर्सी पर बैठने लगा।

“नहीं, सोफे पर आराम से बैठिए। दीदी तुरंत आ जाएंगी। वे आपकी ही प्रतीक्षा कर रही थीं”, – उसने मुझसे कहा, और मैं सोफे पर बैठकर सिगरेट जलाने लगा। कोने के रेकटेबुल पर ऐश ट्रे की ओर बढ़ा। उसने तेजी से ऐश ट्रे उठा लिया। और मेरे सोफे की बांह पर रखने लगी, या टेबुल पर रखने लगी। और मुझसे टकरा गई। मेरा चश्मा आंखों से उतरकर फर्श पर गिर गया। टूटा नहीं। वह जोरों से चीखी, “सॉरी! आइ ऐम वेरी सॉरी।”

मैं उसकी चीख से डर गया। फिर, बोला- “नहीं, सॉरी होने की कोई बात नहीं है।”

मैंने आश्वासन दिया, तो वह दुबारा मुस्कराई, और सामने की कुर्सी पर बैठ गई। बैठकर मेरी तरफ देखने लगी। मैं उसकी तरफ देखने लगा। काफी देर तक देखते रहने के बाद मैंने पूछा- “आप आइरीन की बहन हैं?”

“जी हां! सबसे बड़ी आइरीन हैं। फिर, लीलू यानी लिलिअन हैं, जो सबसे बाईं तरफ बैठी थीं। फिर मैं हूँ। फिर, शीलू है, जो सबसे दाईं तरफ थी। फिर, मिनी। हम लोग पांच बहनें हैं। एक भाई है, सुभाष, जो अभी भीतर गया है” – उसने विस्तारपूर्वक उत्तर दिया। मैंने पूछा- “आपने अपना नाम तो बताया ही नहीं।”

तभी आइरीन आ गई। आती-आती ही बोली- “इसका नाम है शकुंतला। माँ उन दिनों कालिदास के नाटक पढ़ रही थीं। मगर, उन नाटकों का इस पर कोई असर नहीं पड़ा है। बड़ी बातूनी है, और बहनों से झगड़ा करने के अलावा इसे कोई काम ही नहीं आता।”

शकुंतला शरमाने लगी। आइरीन हाथ में पड़ी कंधी बालों की एक लट में रोककर, सोफे में धंस गई। आइरीन का तुरंत धुला हुआ चेहरा मुझे अच्छा लगा। चेहरे पर जरा भी मेकअप नहीं था, फिर भी नहीं लग रहा था कि उसकी उम्र तीस को पार कर चुकी है। बिना बांहों वाली लो-कट ब्लाउज और खादी की सफेद साड़ी में वह जरा भी विदशिनी नहीं दिखती थी। मैंने सुना था, आइरीन बीस-बाइस साल फ्रांस में रह चुकी है। मगर, चेहरे पर या शरीर पर कहीं भी फ्रांस नहीं था, यूरोप नहीं था। बाल खुले थे और पीठ पर कमर से नीचे फैल रहे थे। बांहें खुली थीं, और संगमरमर की बनी मालूम होती थीं।

शकुंतला कमरे से बाहर चली गई। मैं चुपचाप बैठा रहा। आइरीन ने बालों को लपेटकर टेम्पोरेरी जूड़ा बांध लिया। जूड़ा बांधने की क्रिया के वक्त मेरी आंखें उसकी बांहों से चिपकी रहीं, और मैं आतंकित होता रहा। आतंकित इसलिए होता रहा कि आइरीन जाने-अनजाने अपने शरीर का प्रदर्शन कर रही थी, और उसका शरीर अपने-आप में शारीरिक आभिजात्य का सुंदरतम उदाहरण था और पता नहीं मेरा स्वभाव ऐसा क्यों है कि मैं नारी शरीर से और आभिजात्य से यों ही आतंकित होता रहा हूँ।

“बेयरा, हम लोगों के लिए कॉफी ले आओ!” – किसी अदृश्य शक्ति को संबोधित करते हुए, आइरीन ने बड़े ही सुललित कंठ से पुकारा। ठीक मिनट भर के बाद कॉफी आ गई। कॉफी का ट्रे उठाए एक नेपाली लड़का आया। दो खाली प्याले, कॉफी-पॉट, दूध का प्याला, चीनी का प्याला, एक बड़ी तश्तरी, जिसमें आम और केले और संतरे के टुकड़े थे, फूलों वाली नंगी लड़की को थोड़ा खिसकाकर ट्रे रख दिया गया। आइरीन मुस्कराई। और, कॉफी बनाने लगी। मैंने सिगरेट जलाई।

“मैं समझती थी, आप एकदम ऑक्सफोर्ड स्टाइल के आदमी हैं। मगर, आप तो शत-प्रतिशत भारतीय हैं। आपके आर्टिकल्स और कालम पढ़कर तो लगता है, अंग्रेजी आपकी मदरटंग है। मैं तो बहुत डर रही थी। फ्रांस को मैं मदरलैंड की तरह जानती हूँ। फिर भी, पता नहीं क्यों कांटिनेंट का कायदा-कानून मुझे पसंद नहीं। मुझे अपना यह देश ही अच्छा लगता है। अपना देश, अपना लिबास, अपने फल-फूल”, – आइरीन कॉफी बनाती-बनाती बोलती रही।

मैं सिगरेट पीता-पीता मुस्कराता रहा। उत्तर मैंने कुछ दिया नहीं। उत्तर देने की जरूरत भी नहीं थी। मैं आइरीन को समझने की कोशिश करता रहा था। माँ-बाप क्या इतने रुपए छोड़ गए हैं कि आइरीन इतनी शानदारी से तीन बहनों और एक भाई और बेयरों और नौकरानियों को पाल रही है? कमरे के फर्नीचर बेहद खूबसूरत और लेटेस्ट डिजाइन की इन खिड़कियों में झूलते हुए पर्दे कीमती जापानी हैंड प्रिंट के हैं। दीवारों पर ओरिजिनल पेंटिंग्स हैं, और पेंटिंग्स से आइरीन की सुरुचि कलाप्रियता का पता चलता है। फर्श पर पार्शियन कार्पेट है। एक कोने में पियानो-सेट है। दूसरे कोने में रेडियोग्राम। ड्राइंगरूम है और शादी करके चर्च से लौटती हुई किसी यूरोपियन राजकुमारी की तरह खूबसूरत और सजी-धजी है।

“ये पेंटिंग्स आपको अच्छे लगे? सामने वाली तो स्टडी मैतिसी की है। एक आर्ट-डीलर का कहना है, अगर बेच डालूं तो लाख-दो-लाख से कम क्या मिलेंगे। और यह व्राक है, यह पिकासो!” – आइरीन की आंखों में जैसे आर्ट की सारी खूबसूरती फैल गई।

मैतिस। व्राक। पिकासो। हेनरी मूर। बातें पेंटिंग से स्कल्पचर पर आईं। स्कल्पचर से लिटरेचर और फिलासफी पर आ गई। आइरीन ने कहा- “अचानक आपसे फोन पर बातें हुईं, और अचानक इस पहली मुलाकात में ही हम कितने नजदीक आ गए हैं।”

मैंने अनुभव किया, हम दोनों वाकई नजदीक आ गए हैं। वह मेरे ही सोफे पर बैठ चुकी थी, और कॉफी सिप कर रही थी, और फिलासफी की बातों में उतर आई थी। मुझे औरतों के मुंह से फिलासफी अच्छी नहीं लगती है, कविता अच्छी लगती है। मैंने कहा- “इलियट ने लिखा है, वी डोंट नो ईच अदर, बट लेट्स प्रिटेंड, बट लेट्स प्रिटेंड…

“और, एजरा पाउंड ने लिखा है, डोंट प्रिटेंड, एंड लेट्स बिलीव इट, लेट्स डिसीव ईच अदर, एंड डोंट डिसीव इट।” आइरीन ने रुक-रुक कर, रेशम जैसे मुलायम और तुरंत खुले हुए बादल जैसे कुंवारे लहजे में मुझसे कहा, और नजरें झुकाकर कॉफी के अपने अधखाली प्याले की तरफ देखती रही। प्याला खाली हो गया। एक बार ही नहीं, धीरे-धीरे प्याला खाली होता गया, और मेरा भय बढ़ने लगा। मेरा भय बढ़ने लगा, और कमरा भारी होता गया। कमरे की हर चीज़ का वजन बढ़ने लगा। चांदी की नंगी लड़की और गुलाब से सुर्ख-सुर्ख फूल और जापानी प्रिंट के पर्दे और दीवारों पर फैली क्यूबिक तस्वीरें।

तब, मैंने कहा कि मैं प्रिटेंशन पसंद नहीं करता हूँ, सफाई और साफगोई पसंद करता हूँ। सादगी मुझे बहुत प्यारी है। लिपस्टिक से और ‘किक’-मेकअप से मुझे नफरत है। मैं बुद्धि और बौद्धिकता से लगाव रखता हूँ। बीथोविन और मोजार्ट से ज्यादा मुझे ब्राह्मस पसंद आता रहा है। मुझे बायरन नहीं चाहिए, मिल्टन चाहिए। मुझे मिल्टन भी नहीं चाहिए, रवीन्द्रनाथ चाहिए। तुमि जे तुमिइ ओगो, सेइ तव ऋण। आमि मोर प्रेम दिए शुधि चिर दिन।

और, आइरीन ने कहा कि उसे रवीन्द्र संगीत से प्यारी और कोई चीज़ नहीं लगती है, और खास अवसरों के अलावा वह लिपिस्टिक नहीं लगाती। मेकअप नहीं करती। बस, जूड़े में मोतिया या बेला या गुलाब या चंपा के चार फूल डाल लेती है। और गले में छोटा सा कोई नीलम या हीरा या पन्ना डाल लेती है। सिल्क से उसे नफरत है, ज्यादातर खादी या हैंडलूम पहनती है। और, उसके अपने कवि तो गोएटे और दान्ते हैं। ‘एबण्डन आल होप्स, ये हू एण्टर हियर’, ऐसा दान्ते के इन्फर्नों के दरवाजे पर लिखा है।

और, आइरीन ने कहा कि शकुंतला के डांस का उदाहरण नहीं मिल सकता है। रामगोपाल और उदयशंकर जैसे लोग तारीफ करते नहीं थकते। मगर शकुंतला कहती है, प्रोफेशनल नहीं बनेगी। शौक है, बस! और लिलियन? संगीत में उसके प्राण बसते हैं। रेडियो वाले पता लिखते-लिखते थक गए, लिलियन प्रोग्राम देने नहीं जाती है। फिल्म वालों ने प्लेबैक का ऑफर दिया था। मैंने मना कर दिया। आखिर लोग क्या कहेंगे, क्लेरियन ठाकुर की बेटी फिल्मों में गाती है! शीलू तो बस अपने फ्लाइंग क्लब की आनरेरी सेक्रेट्री है। अपना हवाई जहाज तो कभी होगा नहीं, होगा तो शायद, शीलू रात-दिन आकाश में ही उड़ती रहेगी। सिर्फ मैं ही कोई शौक नहीं पालती। बस, रात-दिन किताबें पढ़ती रहती हूँ और सोचती रहती हूँ कि अपने देश के लोग अपना कल्चर क्यों तोड़ रहे हैं…

बेयरा वापस आया और ट्रे उठाकर चला गया। आइरीन ने चांदी की लड़की के हाथ से एक गुलाब छीन लिया, और पंखुड़ियों पर उंगलियां फेरती रही। एक-दो पत्ते टूट गए। मैंने अपने पैकेट का आखिरी सिगरेट जलाया। मैंने कहा, “फिर आपने इतनी मामूली सी नौकरी के लिए एप्लिकेशन क्यों दिया है? आपको पता है, आप को कुल तीन सौ रुपए मास मिलेंगे? आपने मुझे बेकार अपने यहां बुलाया, बेकार मुझसे परिचय किया। मैं आपको रिकमेंड नहीं कर सकूंगा, मिस आइरीन! हमें कोई साधारण सी लड़की चाहिए, जो हमारे अखबार के वूमन-सैक्शन को संभाल सके। मुझे विश्वास है, आप खुद भी इतनी सस्ती नौकरी स्वीकार नहीं करेंगी। आइ ऐम सॉरी…”

मिस आइरीन ने अपनी भारी और बड़ी-बड़ी पलकें उठाकर मेरी ओर देखा। फिर, पलकें गिर गईं। फिर, वे गुलाब के फूल को देखती रहीं, जिसकी पंखुड़ियां फर्श पर बिखर चुकी थीं। फिर, वे चांदी की लड़की को देखती रहीं पॉलिश नहीं होने की वजह से जिसके शरीर पर जगह-जगह दाग आ गए थे। फिर, वे मुस्कराईं। यह मुस्कुराहट होटलों के रिसेप्शनिस्ट की मुस्कुराहट नहीं थी। यह मुस्कुराहट मेरे लिए अपरिचित थी। यह बहुत साफ, और बहुत नंगी, और बहुत तीखी मुस्कुराहट थी। आइरीन का जूड़ा खुल गया था, और लंबे बाल चेहरे के दोनों तरफ फैल आए थे, सीलिंग फैन की तेज हवा में सिहर रहे थे। मेरे मन का सारा भय, सारा आतंक खत्म हो चुका था, और मुझे याद आ चुका था कि मैं अपने अखबार के मैगजीन सैक्शन का प्रधान संपादक हूँ, और आइरीन ने मेरे नीचे काम करने के लिए दरख्वास्त दिया है।

“देखिए, दयानंद साहब आपने इतने साफ लफ्जों में नहीं पूछा होता, तो मैं यही कहती कि मैं रुपयों के लिए नहीं, शौक के लिए, जॅर्नलिज्म के अपने शौक के लिए आपके न्यूजपेपर में काम करना चाहती हूँ। मगर, अब ऐसा नहीं कहूँगी। आप बहुत ईमानदार आदमी हैं, आपसे कोई बात छिपाने से मेरा लाभ नहीं है, नुकसान है। आइए मैं आपको अपना घर दिखाती हूँ” – आइरीन ने कहा, और उठ खड़ी हुई। मेरा हाथ पकड़कर, मुझे लगभग खींचती हुई अंदर की तरफ खुलने वाले दरवाजे में ले गई। पर्दा हटाकर हम दोनों भीतर गए। भीतर कुछ नहीं था, बहुत ही छोटा किचन का कमरा था। कमरे में एक ओर चूल्हे पर चावल पक रहा था, खाने के बर्तन बिखरे थे, दो-तीन बड़े-बड़े ट्रंक रक्खे थे, बिस्तरों के बंडल पड़े थे, घर-गृहस्थी का पूरा सामान पड़ा था। और दूसरी ओर जमीन पर दरी बिछाकर तीन बहनें बैठी थीं। शकुंतला फिल्म फेयर का कोई पुराना अंक पलट रही थी। लीलू चावल से कंकड़-पत्थर चुन रही थी। शीलू अधलेटी पड़ी थी और ताड़ के पत्ते का पंखा खुद को और अपनी बड़ी बहिनों को झल रही थी। एक मोढ़े पर भाई बैठा था और फिजिक्स की एक किताब पढ़ रहा था। और कमरे में कहीं जगह नहीं बच रही थी जहां मैं और आइरीन एक साथ खड़े हो सकते।

बहनों ने और भाई ने मुझे नहीं देखा क्योंकि मैं आधा पर्दे के और आधा आइरीन के पीछे छिपा था। शकुंतला ने बहुत उत्सुक और चिंतित स्वर में पूछा- “दीदी, तुम्हें नौकरी मिल जाएगी न? वे क्या कह रहे थे?”

मैं वापस आकर सोफे पर बैठ गया। आइरीन वापस आ गई, दरवाजे के पास खड़ी रहकर ही बोली- “दयानंद साहब, इस कमरे की हर चीज़ किराए की है और पिछले पांच-सात महीनों से किराया नहीं दिया गया है। और, नेपाली बेयरा और नौकरानी मेरे नहीं हैं बगल के बड़े फ्लैट वालों के हैं। वे लोग दयालु हैं, कभी-कभी अपने नौकरों से हमें काम लेने देते हैं।”

मैंने आइरीन को कोई उत्तर नहीं दिया, बुझी हुई निगाहों से ड्राइंगरूम की हर चीज़ देखता रहा। आइरीन को देखता रहा। आइरीन को फैशन से और मेकअप से और ऐशो-इशरत से वाकई नफरत है।

राजकमल चौधरी
राजकमल चौधरी (१३ दिसंबर १९२९ - १९ जून १९६७) हिन्दी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि एवं कहानीकार थे। मैथिली में स्वरगंधा, कविता राजकमलक आदि कविता संग्रह, एकटा चंपाकली एकटा विषधर (कहानी संग्रह) तथा आदिकथा, फूल पत्थर एवं आंदोलन उनके चर्चित उपन्यास हैं। हिन्दी में उनकी संपूर्ण कविताएँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं।