‘Dukh Ke Din Ki Kavita’, poems by Santwana Shrikant

मारे जाते हैं सपने
बची रह जाती है
परम्परा।
वध होता है
जिजीविषा का
ढोती रहती हैं सभ्यताएँ
यह दुःख।
सदियों तक
सलीब ढोता है मनुष्य।

***

रात ताकती रहती है
दुःख को,
और दुःख रात को
भयावह सन्नाटे के साथ
रखकर एक-दूसरे के
काँधे पर सर।

***

मैंने पीठ टेक दी है
समय की तरफ़
हथेलियों को धरा है सपाट,
तुम मेरी हथेलियों पर
अपना हाथ रख,
और गले लगकर
सोख लेना मेरे दुःख।

***

मेरे लिए कविता
जब समाप्त हो जाएगी,
तब तुम्हें मेरी चीखें
सुनाई देंगी
सन्नाटे में गूँजती हुई।
दरअसल, कविता
सोखती रहती है
मेरे दुःख और आँसू।

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