‘Dukh Ke Dukh Ki Peeda’, poetry by Harshita Panchariya

सुख की देह जितनी सूक्ष्म है
उतना ही दुःख देह पर देह लिए
औंधा लटका रहता है
जैसे ही एक देह हटती है,
दूसरी देह आकर लटक जाती है…
संसार के सभी दुःख
सभ्यता के दुःख के समक्ष
गौण हो जाते हैं,
गिरने से बड़ा दुःख जाने का है
जाने से बड़ा दुःख ना पाने का है
ना पाने की स्थिति में जब
आदमी गिरने लगता है
तो परत दर परत चढ़ी सभ्यता की देह
जाने लगती है
और उस सुख के समान क्षणिक हो जाती है
तब सोचना पड़ता है
कि क्षणिक होती सभ्यता
दो हथेलियों के बीच रिसते हुए
क्या जान पाएगी
हथेलियों का दुःख?
सुनो,
दुःख के दुःख की पीड़ा के लिए
कभी कोई शब्द मिले तो बताना,
मेरा शब्दकोश अपूर्ण है…

यह भी पढ़ें:

प्रभात मिलिंद की कविता ‘क़िस्से से बहार होने का दुःख’
सांत्वना श्रीकांत की कविता ‘दुःख के दिन की कविता’
विजय शर्मा की नज़्म ‘दुःख का एक महल’
यशपाल की कहानी ‘दुःख का अधिकार’

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