कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!

छिपकली को ही ले लो,
कैसे पुरखों की बेटी
छत पर उलटा सरपट भागती
छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।

फिर वे पहाड़!
क्या-क्या थपोड़कर नहीं बनाया गया उन्हें?
और बग़ैर बिजली के चालू कर दीं उनसे जो
नदियाँ, वो?

सूँड, हाथी को दी और चींटी को भी
एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगह
हाँ, हाथी की सूँड में दो छेद भी हैं अलग से
शायद शोभा के वास्ते
वरना साँस तो कहीं से भी ली जा सकती थी
जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से।
अरे, कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसे रसीली और चिकली टपकदार, सृष्टि के हर
स्वाद की मर्मज्ञ
और दुम की तो बात ही अलग
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
तुम्होर ही मुखड़े पर झलती हुई।

आदमी बनाया, बनाया अँतड़ियों और रसायनों का
क्या ही तंत्रजाल
और उसे दे दिया कैसा अलग-सा दिमाग़
ऊपर बतायी हर चीज़ को आत्मसात करने वाला
पल-भर में पूरे ब्रह्माण्ड के आर-पार
और सोया, तो बस सोया
सर्दी-भर कीचड़ में मेंढ़क-सा

हाँ, एक अन्तहीन सूची है भगवान
तुम्हारे कारनामों की, जो बखानी न जाए
जैसा कि कहा ही जाता है।

यह ज़रूर समझ में नहीं आता
कि फिर क्यों बन्द कर दिया तुमने
अपना इतना कामयाब कारख़ाना?
नहीं निकली नदी कोई पिछले चार-पाँच सौ साल से
जहाँ तक मैं जानता हूँ,
न बना कोई पहाड़ अथवा समुद्र,
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखायी दे जाते हैं
कभी-कभार।
बाढ़ें तो आयीं ख़ैर भरपूर, काफ़ी भूकम्प, तूफ़ान
ख़ून से लबालब हत्याकाण्ड अलबत्ता हुए ख़ूब
ख़ूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गई सिर्फ़ एक-सी भूख, लगभग एक-सी फ़ौजी
वर्दियाँ जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार।
प्रार्थनागृह ज़रूर उठाए गए एक से एक आलीशान।
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर, गुम्बद, मीनार
उँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है ख़ून!

आख़िर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना बड़ा कारोबार?
अपना कारख़ाना बन्द करके
किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन-सा है आख़िर, वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!

वीरेन डंगवाल की कविता 'ख़ुद को ढूँढना'

Link to buy:

Previous articleआहट
Next articleमीनाक्षी मिश्र की कविताएँ
वीरेन डंगवाल
वीरेन डंगवाल (५ अगस्त १९४७ - २८ सितंबर २०१५) साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी कवि थे। बाईस साल की उम्र में उन्होनें पहली रचना, एक कविता, लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे। उन्होनें १९७०-७५ के बीच ही हिन्दी जगत में खासी शोहरत हासिल कर ली थी। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी ख़ुद की कविताओं का भाषान्तर बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया जैसी भाषाओं में प्रकाशित हुआ है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here