शाम की हलकी गुलाबी शान्ति में
निष्पाप नीरव ज्योति-सी
द्युति की कली।
इस मोतिया आकाश की द्युति-तारिका।
गृह-द्वार आंगन में बिछी
जो मौन कमरे में रमी
वह मोतिया आकाश की कर्पूर-कोमल कान्ति है,
हिय में बसी-
त्यों यह तुम्हारे रूप की
कोमल सफेद गुलाब-सी द्युति-शान्ति है।
गृह-द्वार-आँगन में रमी
व्यक्तित्व की आभा तुम्हारी विश्व-मानव-संगमी
यों खिल चली
हिय-साँच के सुप्रसन्न कोमल रंग-सी
ज्यों साफ-पोंछे अमल गृह-कन्दील के
मृदु काँच मे किरने उगीं,
जिस साँझ-दीपक के उजाले में जगी
नत-अन्तरा भ्रातृत्व-भावुक भावना।
शाम की हलकी गुलाबी शान्ति में
यह मौन सुषमाकार कोमल मोतिया आकाश
पृथ्वी पर उतर
मेरे हिये मे काँपकर
नव स्नेह-सर-सा छा गया।
द्युति-तारिके,
पल एक तुमको देख मेरे भाग्य भी भरमा गये।
भूला हुआ-सा स्वप्न वापिस आ गया।
पल भर हुआ परिचय
कि जैसे सिन्धु हो अक्षय,
तरगो ने उछलकर दूर तक
सूखे कगारों को
हमारे प्राण के बौद्धिक सहारों को
भिगोकर हाय! आज हिला दिया।
व्यक्तित्व सारा जागकर
चैतन्य केन्द्रीभूत हो
जलती हुई संवेदना में एक पल
अंगार-सा खिलता रहा।
शत आत्म-चेतस वेदना के रूप ले
तुम रश्मि-आकृतियों बिंधी
मेरे हृदय में स्वप्न-सी चलती रही।
आदिम मनोहर नील नभ में प्राण के
मौलिक नवीन प्रकाश मेघों-से
हमारे भाव भी तिरते रहे।
एक पल के बाद लेकिन मौन था,
जो आ गयी थी किरन-छाया खो गयी।
एकान्त शून्य बरामदा,
उसमें अकेलेपनभरी छाया बिरानी सॉवली।
मैं आज क्यों निज में खुला, निज में मुंदा
द्युति की कली।
देखा तुम्हें जैसे कि तब
द्युति-तारिके,
बस दृष्टि मेरी ही अजब पहचान के,
मैं चल पड़ा खंडहर-गुज़रती राह पर
वन-ढॉक में
कुछ सोचने, कुछ आँकने।
पीपल गुंजाते हैं जहाँ सुनसान को
क्षिप्रा-पुलिन-वासो हवा दुलरा रही
भूरे तपे मैदान को, एकान्त में
उस ओर पथ का बाँकपन
था ले गया मन के नयन।
क्या मूल्य हीरक द्युति पलों का श्वेत-स्मित?
वन-पक्षियों की श्वेत-सित
शत-पख-ऊष्मा-सी मधुर इस आँच (या आत्मीयता)
का मूल्य क्या?
आता स्वयं उत्तर कि रस-गम्भीर मानव-रूप की
जिनमें प्रतिच्छाया हँसी
वे मात्र जीवन-पल नहीं
समृद्ध करते जो हृदय-क्षमता अरे।
इस ज़िन्दगी की राह में पल के परे।।