श्रेया की नज़रें डोरबेल पर टिकी हुई थीं। उसके मन में गुस्से का गुबार भरा था पर वह अपने क्रोध की ज्वाला को और तीव्र करना चाहती थी, ताकि निश्चित समय पर उसके क्रोध का गुब्बारा फूट सके, और उसके कोप बरसाने की क्रिया में उसका नर्म दिल उसके आड़े न आये या फिर क्रोध प्रज्ज्वलित करने के सभी अवयवों में से कोई भी अवयव छूट ना जाये। इसी प्रयास में ग्यारह दिनों से उसने खुद को झोंक रखा था, पूर्व घटित जो भी छोटी-मोटी घटनाएँ उस कोप को और भयंकर बना सकती थीं, उन्हें भी वह अपनी कोप की शृंखला में जोड़ती जा रही थी।

अचानक डोरबेल बजी, श्रेया ने तुरंत उठकर दरवाजा खोलना चाहा पर उसके अंदर पैठ किये हुए अहंकार ने उसे रोका और उसने डोरबेल के तीन- चार बार बजने तक दरवाजा न खोलने का प्रण किया। चार बार डोरबेल बज चुकी थी और अब जब सिर्फ सन्नाटा पसर गया, तब झट से दौड़कर उसने दरवाजा खोला।

सामने मैले कुचैले, बड़े ही पुराने कपड़ों में लिपटी एक चालीस-बयालीस साल की प्रौढ़ा खड़ी थी।

गीता अपने भाग्य के हिस्से में आयी हुई गरीबी, रोग और दुख के थपेड़ों से चोटिल, और अपनी आत्मा पर वक्त की छैनी हथौड़ी से की गई खरोचों और घावों को अपने चेहरे पर लाने का प्रयास करते हुए दरवाजे पर निढाल खड़ी थी। परन्तु उसके चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव भी स्पष्ट रूप से झलक रहा था, जैसे वो किसी बोझ से मुक्त हो गयी हो या कोई बड़ा काम करने के बाद जिस तरह से कोई गहरी साँसे भरता है, वैसे ही गीता के चेहरे के भाव थे।

गीता, श्रेया के घर करीब अट्ठारह बरस से काम कर रही थी, इस लिहाज से वह एक घर की सदस्य जैसी ही बन गयी थी।

गीता हर बार अपनी परिस्थितियों के चलते अपनी तनख्वाह का कुछ हिस्सा पहले ही मांग लेती थी, उसे लगभग हर महीने ही पैसे पहले मांगने पड़ते थे, पर पहले की बात और थी। अब परिस्थितियाँ एकदम बदल चुकी हैं, श्रेया के सास-ससुर अब इस दुनिया में नहीं थे। और इस बार मामला काफी गंभीर प्रतीत हो रहा था। गीता पूरे दस दिन के बाद काम पर वापस आयी थी और इस बार उसकी छुट्टी का स्वरूप हर बार से बिल्कुल विपरीत, आकस्मिक और असूच्य था। तनख्वाह के पैसे एडवांस में लेने के अगले दिन के बाद से ही गीता गायब थी जो कि श्रेया के अंदर बसे हुए अहंकार को ठेस पहुँचा चुका था।

“कहाँ थी इतने दिन?”, श्रेया ने गीता के चेहरे को अनदेखा करते हुए कहा।

वह गीता के चेहरे की तरफ देखना भी नहीं चाह रही थी क्योंकि वह उसके चेहरे को देखकर पिघलना नहीं चाहती थी।

“बहू जी मेरी तबियत खराब हो गयी थी, इसलिए नहीं आ पा रही थी।”

“चलो तबियत खराब थी पर मुँह से बताने में क्या तकलीफ थी? आपसे अगर काम नहीं हो पा रहा तो बता दीजिए, मैं किसी और को देख लूँगी।”, श्रेया ने ऐंठते हुए कहा।

“नहीं बहू जी, आपको छोड़कर कैसे जा सकती हूँ, बड़ी मालकिन ने आपको अपनी बेटी की तरह प्रेम दिया था तभी तो भैया जी का भी ख्याल न करते हुए मरते हुए मुझसे यही कह गयी हैं कि मैं जब तक मेरी हिम्मत पड़े आपके काम आऊँ और मैं वही कर रही हूँ, डूबते हुए को नहीं छोड़ सकती।” गीता चेहरा लटकाए हुए कहती है।

“डूबता हुआ आप किसे कह रहीं हैं?” श्रेया गुस्से से आग बबूला हो जाती है।

“आपके इसी गुस्से ने सब कुछ लील लिया है, फिर भी आप इस गुस्से को ही तवज्जो दे रही हो। खैर मैं हूँ ही कौन!”

“ठीक है, मैं ही बेवकूफ हूँ, अब आप अपना काम देखिए, मुझे ऑफिस के लिए लेट हो रहा है, वैसे भी आप सिर्फ बातें ही करती है, बेहतर होगा काम पर भी ध्यान दें वरना आपकी मालकिन ने जो वादा आपसे लिया है वो आप उनके घर जाकर पूरा करिए।”

“मैं बिल्कुल आज़ाद हूँ अब, एक आज़ाद पंछी, बहुत ही खुश हूँ मैं परतंत्रता से छुटकारा पाकर।”

गीता अपने मन में सोचती है इस औरत को अब किसी पर भरोसा नहीं रहा तो इसकी ज़िम्मेदार ये खुद भी है। कोई इतना कठोर, प्रेम से रिक्त, निर्जन स्थान की तरह कैसे हो सकता है, जहाँ प्रेम और दया की कोई फुहार बरसों से नहीं पड़ी हो वह जगह निश्चय ही प्राण विहीन ही हो जाएगी।

उधर श्रेया अपने में बुदबुदा रही थी कि एक तो पैसे इनको पहले चाहिए। काम भी नहीं छोड़ना चाहती, और अब तो हद ही हो गयी कि बताकर छुट्टी लेना भी मुनासिब नहीं समझ रहीं। श्रेया खुद को खुद की नज़र में सही साबित करने में परेशान हुए जा रही थी।

आफिस में श्रेया का व्यवहार सभी से अच्छा ही था, सब उसे एक नेकदिल औरत समझते थे, पर वह एक बात अच्छी तरह से जानती थी कि सबके लिए हमेशा अच्छा होना संभव ही नहीं था।

कुछ वर्ष पूर्व ही उसका तलाक हुआ था रोहित से।

दोनों का प्रेम-विवाह होने के बावजूद दोनों ही एक दूसरे की ज़िंदगी में सामंजस्य बिठा पाने में असमर्थ थे, इसी कारण से दोनों के रास्ते अब अलग-अलग हो गए थे।

श्रेया नए ख्यालात की लड़की थी, और उसके स्वभाव में ज़िद का हिस्सा बहुत बड़ा था। बाकी के बचे हिस्सों में उसका बेबाक मिज़ाज़, शार्ट टेम्पर्ड होना, हद से ज़्यादा बेफिक्री ये सब बराबर मात्रा में मौजूद थे, जिसके चलते उसकी दो बार सगाई भी टूट चुकी थी। जब शादी हुई भी तब भी वह नए माहौल में एडजस्ट करने में नाकाम साबित हो रही थी पर उसके ससुराल वालों से उसे असीम स्नेह प्राप्त हुआ था, खासकर उसकी सास उसे अपनी बेटी ही मानती थी। उसके स्वभाव में उन्हें अल्हड़ता और निश्छलता दिखती थी जो भरपूर मात्रा में अपनी मौजूदगी का अहसास कराती भी थी।
इसी वजह से वह अपनी बहू को लेकर चिंतित रहती थी।

“माँ जी के जाने के बाद सब कुछ कितना बदल गया”, श्रेया मन मसोसते हुए कहती है, “वो मेरा कितना ख्याल रखती थीं। तब रोहित भी मुझे कितना प्रेम करते थे पर उनके जाने के रोहित भी बदल गए”, वह अपने आप को कोसती है, “शायद मुझमे ही कोई कमी है, माँ जी भी तो कहा करती थी”, वो पुरानी यादों में खो जाती है…

“अभी तो मैं तुम दोनों के कान खींचकर समझा सकती हूँ पर जब मैं नहीं रहूँगी तब मध्यस्थता कौन करेगा, इसकी नौबत ही क्यों आती है।”

“वो तो नहीं मानता बात पर तुम तो मेरी प्यारी बेटी हो! कभी-कभी रिश्तों के बीच अगर अहम आये तो उसे कुचल देना चाहिए।”

“अपनों का होना बहुत ज़रूरी है, उनके न होने पर उनकी कीमत का पता लगता है।”, उनकी बातें याद करते हुए उसकी आँखें भर आती हैं।

अब तो एक दूसरे पर तोहमत मढ़ते रहना ही उन दोनों के बीच का वार्तालाप बन चुका था।

फिर भी दिल के किसी कोने में गुपचुप वो प्रेम छुपकर बैठा था, जिसने श्रेया के हृदय में रोहित की बातों के रुहानी अहसासों को बोया था, वह उस छिपे हुए प्रेम को ढूंढकर निकाल फेंकने में खुद को बेबस पा रही थी।

ये सब बीतने पर कोई इंसान कैसे स्थिर, शांत और खुश रह सकता है, श्रेया बहुत चिढ़चिढ़ी होती जा रही थी, अब उसे किसी भी रिश्ते पर खास भरोसा या प्रेम नहीं था।

तलाक के बाद से श्रेया उसी शहर में फ्लैट लेकर रहती थी। वो टूट सी चुकी थी। सब कुछ फिर से बसाना उसके बस की बात नहीं थी। यही सब देखते हुए गीता ने भी अपना घर श्रेया के घर के पास ही किराए पर ले लिया। उसके पति का काम धाम भी उसी इलाके में था, ऐसा उसने श्रेया को बताया था।

रोहित और श्रेया के बीच अब पिछले 3 सालों से किसी तरह का कोई संवाद या संवाद का जरिया नहीं था, थी तो बस एक टीस, सब कुछ खो देने की।

श्रेया के जाने के बाद से रोहित घर पर बहुत कम ही रहता था, उसकी हालत एक घुमक्कड़ की हो चुकी थी, कभी किसी दोस्त के यहाँ खाना, कभी किसी होटल में यही उसकी जिंदगी थी। अब उसे फ्रीडम शब्द एक धोखा लगता था जिसके लिए उसकी लड़ाई भी अपनी पत्नी से कई दफा हुई थी। अब जब वो स्वन्त्रता मुफ्त में मिल रही थी तो वो बेमानी लग रही थी, उसका कोई मज़ा ही नहीं था।

रोहित की जॉब छूटे दो साल हो चुके थे, कुछ पैतृक संपत्ति को बेचकर वह जी, खा रहा था, पर ऐसा जीना उसे लानत लगता था पर उसकी खस्ता हालत और दुखी रहने के चलते न ही उसे कोई नौकरी मिलती, अगर मिलती भी तो वह उसे निभा नहीं पाता। इन 4 वर्षों में बाहर का खाकर उसने कई रोगों को भी निमंत्रण दे रखा था। अहंकार, दम्भ की बाढ़ में जीवन नैया का टूट कर डूब जाना कोई बड़ी बात नहीं थी।

इधर श्रेया का भी अकेलेपन से बुरा हाल था, वह जब भी बाहर से कुछ खरीद कर लाती या ठगी जाती तो उसे अपने पति की कमी बहुत खलती कि कैसे बड़ी बुद्धिमानी से वो हर सामान खरीदते थे। मोल-भाव कराना तो जैसे उन्हें ईश्वर प्रदत्त उपहार मिला था। अपनी मीठी बातों से और हाज़िरजवाबी से किसी का भी मन मोह लेना उनके लिए चुटकी बजाने जितना आसान था, जो कि श्रेया के लिए सबसे कठिन कार्य था। वह हर किसी से बात नहीं कर पाती थी, कुछ संकोची होने के कारण कई बार ठगे जाने के बाद भी वह घर आकर सिर्फ खुद को कोसती, इस पर रोहित का यह कहना कि तुम तो सिर्फ मुझसे लड़ सकती हो, मुझे ही हराना तुम्हारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम है, बाहर तो तुम सिर्फ भीगी बिल्ली हो, अगर मैं ना रहूँ तो एक दिन भी तुम्हारा काम नहीं चल सकता, ये बातें श्रेया को बहुत नागवार गुज़रती थीं। अहंकारी होने के कारण ये बातें उसके अहम पर एक गहरा चोट थीं।

“यही सब बातें हैं जिन्होंने हमारे प्रेम को खोखला कर दिया है”, श्रेया ने अड़कर कहा, “मैं अकेले बड़े आराम से रह सकती हूँ, अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जी सकती हूँ। तुम्हारे रोज रोज के लेक्चर से तो दूर रहूँगी।”

फिर शुरू हुआ था सिलसिला एक दूसरे के दोष गिनने का, किसने कितना कम और किसने कितना अधिक प्रेम और विश्वास लुटाया एक दूसरे पर।
शायद वो दिया हुआ प्रेम, समर्पण और विश्वास भी वो एक दूसरे से वापस ले लेना चाहते थे।

पर कुछ महीने बीतते बीतते श्रेया को अपनी गलतियों का एहसास होने लगा था। अब उसका अहंकार बेमतलब के दम्भ और घमंड सब एक साथ मिलकर उसे कोस रहे थे। अब ये सभी भाव भी उसका साथ छोड़ चुके थे। सिर्फ आँसू ही अब उसके साथी थे।

लौटकर वापस जाने का अर्थ ये है कि मैं गलत थी, पर ऐसा मैं नहीं कर पाऊँगी, और उन्हें भी मुझसे कोई विशेष प्रेम नहीं रहा, अगर होता तो पता तो करते कि मैं कहाँ हूँ इतने सालों से! उसने एक गहरी साँस ली। अब कुछ नहीं हो सकता।

गीता श्रेया के पछतावे से भली भांति परिचित थी, वह भले खुलकर यह बात स्वीकार नहीं करती थी।

एक अकेली स्त्री का जीवन वैसे ही कितना कठिन होता है, अगर शाम से रात के बीच के समय में कोई जरूरत ही पड़ जाए तो उसे बाहर सब शक की नज़रों से देखते हैं और वैसे ही शक की नज़रों से वो स्त्री भी देखती है दुनिया को।

घने अंधेरे में लोग बदल जाते हैं, कभी कभी दिन में देव तुल्य दिखने वाला व्यक्ति भी अंधेरे का लाभ उठाकर दैत्य बन सकता है, इसमें अधिक आश्चर्य नहीं।

इधर रोहित भी खुद से लड़-लड़ कर हार मान चुका था।

खाने पीने की समस्या भी किसी मर्द को तोड़ सकती है। एक आदमी बस घर में चैन से भोजन मिले और थोड़ा सम्मान तो उसका निबाह बड़ी तसल्ली से हो जाता है और उसे चाहिए ही क्या, रोहित इन्ही बातों में घुलता रहता है।

अलानाहक ही इंसान अच्छी खासी ज़िन्दगी को जहन्नुम बना डालता है खुद अपने ही हाथों से वरना क्या खाक जिया हूँ मैं इन चार सालों में। अब तो कोई दोस्त भी नहीं पूछता, जिसने भी ये जान लिया कि मेरी मुफलिसी का दौर चल रहा तो उसने किनारा करना बेहतर समझा। हो भी क्यों ना आखिर किसी के साथ रोने से अच्छा किसी के साथ ठहाके लगाना और मज़े करना है तो मुझे क्यों चुना जाएगा। मैं आखिर किसी को क्या दे सकता हूँ। एक टूटता हुआ इंसान एक गिरती हुई इमारत से भी ज़्यादा खतरनाक होता है, ये दूर दूर तक अपने दायरे में आने वालों को ज़मीदोज़ कर सकता है। खाँस खाँस के उसका बुरा हाल था।

वह लेटे लेटे इन बुरे दिनों में हुए एक अच्छे अनुभव को सोचता है और गिरती हुई अश्रु की बूंदे अश्रुमाला बनकर उसके गालों को सींचती हैं। उसे याद आता है कि कैसे कुछ दिनों पहले दरवाजे पर एक हल्की आहट होने पर उसे किसी के मज़ाक करने का भान हुआ था क्योंकि लोगों को टूटते हुए को बिखरते हुए देखने में बहुत आनन्द आता है।

बेवजह की बातों से वह अपना सर टकरा ही रहा था फिर एक दस्तक और किसी परिचित की आवाज़ की मिली जुली जुगलबंदी से उसका चेहरा खिल उठा था।

“कौन है” वह खाँसते हुए कहता है, दरवाजे पर वह जिसे देखता है उसकी उम्मीद तो उसे कतई नहीं थी।

गीता मुस्कुराते हुए रोहित को निहार रही थी, उसके पूरे व्यक्तित्व में उसका चेहरा सबसे प्रभावशाली था। फटे पुराने कपड़ों और खराब परिस्थितियों में भी मुस्कुराना उसकी खासियत थी।

“अरे आप यहाँ आज कैसे?” रोहित अपनी गुरबत को छिपाने की कोशिश करते हुए पूछता है।

मैं एक कामवाली को लाई हूँ वो आपका भोजन भी बना देगी, जो आपको उचित लगे इसे दे दीजियेगा। कम भी चलेगा।

रोहित, गीता की दरियादिली से स्तब्ध था। ऐसे कितने ही मौके आये थे कि उनसे गीता का अपमान किया था यहाँ तक कि श्रेया की तरफदारी करने वाली समझ कर उसे काम से निकाल भी दिया था। वही आज फरिश्ता बन कर कैसे आ गई। जब लोग देखकर भी मुँह फेर रहे हैं, बुलाने पर भी कोई नहीं आता अब तो फिर ये कैसे आ गईं।

खाँसी का सिलसिला इसी बीच रफ्तार पकड़ लेता है। खाँस खाँस कर रोहित का हाल बुरा हो जाता है। वह हाँफते हुए कहता है अभी वो किसी को काम पर नहीं रख सकता।

उसे खाँसते हुए देख गीता रसोई की तरफ बढ़ती है। वहाँ का दृश्य किसी भी साधारण रसोई से बिल्कुल अलग ही था। एक भी बर्तन साफ नहीं था, फर्श पर पके हुए अनाज के दाने बिखरे पड़े थे, कूड़े का आलम यह था कि वह कूड़ेदान से बाहर गिरकर पूरे फर्श पर फैला हुआ था, पैर रखने की जगह नहीं बची थी। सड़े हुए कूड़े की दुर्गंध से गीता को वहाँ एक मिनट रुकना भी असहनीय सा प्रतीत हो रहा था। जैसे ही वह एक ग्लास धोने को उठाती है उसमें छिपे काकरोचों को देखकर उसके रौंगटे खड़े हो जाते हैं। वह यह सब देखकर बड़ी व्यथित होती है, समय क्या से क्या कर देता है, ये वही घर है जो एक समय था चमकता रहता था।

पानी लेकर वह रोहित के पास पहुँचती है, उसे रसोई से आते देखकर रोहित झेप जाता है। उसे अपनी हालत पर तरस आता है।

“आप लोगों का नमक खाया है इसलिए आप दोनों की हालत देखकर बुरा लगता है!”

इतना सुनकर रोहित चौंक कर पूछता है, “क्यों गीता की नौकरी भी चली गयी है क्या?”, कहकर वह अचानक चुप हो जाता है।

“अरे नहीं वो तो जाती है नौकरी करने, बस उदास सी रहने लगी है।”

“ओह”, रोहित चैन की साँस लेते हुए कहता है।

मैं अब भी वहीं काम कर रही हूँ, मेरा मानना है कि कुत्तों की तरह दर दर भटकने से अच्छा है एक घर पकड़ कर वहीं काम करो।

यह बात रोहित को छू गयी, इतनी कम पढ़ी लिखी होने के बावजूद ये कितनी समझदार हैं । और एक हम हैं जो अपनी जिंदगी तबाह किये बैठे हैं।उसके पास अब अपने इलाज के भी पैसे नहीं बचे। रिश्तेदारों और दोस्तों से मदद मांगना उसके लिए असंभव था।

गीता के लगातार मदद देने की बात पर उसने कहा कि अगर आपके पास कुछ पैसे हों तो आप मुझे उधार दे दीजिए। मैं एक एक पैसा लौटा दूँगा जब नौकरी मिल जाएगी। क्या कहूँ कहते हुए भी शर्म आ रही है।

गीता ने कहा था मैं ज़रूर कोशिश करूँगी और पैसे का इंतज़ाम करके वह फिर आयी थी।

एक दो दिन नहीं पूरे दस दिन, तब पूछा था मैंने बड़े झिझकते हुए, “क्या आपने श्रेया को बताया है कि आप यहाँ हैं।”

“नहीं बेटा उन्हें कुछ नहीं बताया है। समय आने पर बता दूँगी।”

अपनी बातों पर खरी उतरते हुए वह आयी थीं और किस तरह पूरे दस दिन मेरी सेवा की थी, बिल्कुल अपने बच्चे की तरह।

ज़िन्दगी में सब कुछ तो नहीं मिल सकता, जो बिगड़ा है उसके बन जाने की भी कोई गारंटी नहीं है, पर जो भी अच्छा है आस पास उसकी कद्र ज़रूर करनी चाहिए, और कोशिश जरूर करनी चाहिए कुछ टूटता हुआ बचाने के लिए। एक बार फिर से।

अनुपमा मिश्रा
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