‘Ek Bada Shehar Aur Tum’, a poem by Vedant Darbari
चलो एक बड़े शहर की बात होगी आज कि
गुल्लक में बसा है पूरा शहर,
पर शहर के साहूकार गुमशुदा,
छत की मुण्डेर है रात के मुख से बाहर,
सुबह कल फिर इमारतें उगल देंगी
मन के कोने में, ऐंठे पड़े हैं अनगिनत
ख़्वाहिशों के जंगल,
हर जंगल की बहती नदी एक सिगरेट
तुम्हारी चीख़ों के पुस्तकालय में,
आज मौन शेल्फ़ के नीचे पड़ा है
आँखें नहीं रहीं प्रेम की प्रयोगशाला,
धरा के पैर में थकान बन
जो उतर चुका है समुन्दर
होठों ने शराब की केंचुल छोड़ दी है
चुम्बन आज महज एक स्पर्श है
और यादों की क़ब्र पर लेटा है सूर्योदय
बदन पर दिन में चाँद खुदा है
याददाश्त के अन्तिम छोर पर है शाम,
और रात शोर फेंकती रोशनी में मशग़ूल है
पर सेल्फ़ी में कैद है चैतन्य,
सूनेपन के संग्रहालय में कुछ नया है
तो बस तुम्हारी तस्वीर,
पर बोए हुए काले अक्षर से आज सिर्फ़ भैंस उगेगी
आज पुश्तैनी घर ने भी,
पकड़ ली है अदृश्यता
जीतकर किसी अश्वमेध यज्ञ को
माँ-बाप सिद्ध पीठ हैं, और तुम हत्यारे
उबासी जीवन, डकार कर हजम
वो आँगन की भीड़ और चबा डाली तुलसी,
पड़ोसी, दूसरी आकाशगंगा,
न पदार्थ, न ऊर्जा का आवागमन
चिड़िया यहाँ मृग बनी है
चोंच में परिमल नहीं प्यास है
नग्नता का विचरण जैसे चमड़ी का आवरण,
और दोस्त से आख़िरी सम्वाद जैसे भूलना उच्चारण
अब इंतज़ार है बस ठहराव का,
जैसे एवेरेस्ट पर सड़ती लाशों को नीचे गिरने का,
तुम्हारा शरीर, कोई नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी
आत्मा, कोई कटा हुआ प्लूटो अंतरिक्ष से,
तुम्हारी सम्वेदना, छटपटाती कविता
मोहताजी आँखों से देखती
कलम, काग़ज़, विचार और
विषय को,
और जीवन एक विमुद्रीकृत सिक्का
ख़ैर यह सब आकाश से है प्रत्यक्ष,
उतना ही प्रत्यक्ष कि
जहाँ अँधेरा
वो मेरा गाँव।
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