अक्सर मेरा मित्र टोका करता, “क्या देखा करते हो सड़क पर चलते हुए।”

“कुछ नहीं, दिखाई देता है, इसलिए देखता हूँ।”

“और मैं समझता हूँ कि कोई चीज़ देखते चलते हो कि पड़ी मिल जाये तो उठा लूँ।”

“हाँ, शायद यह इरादा रहता है, इनकार नहीं कर सकता। पर ताज्जुब है कि आजतक कुछ उठाकर ला नहीं पाया। वास्तव में सड़क पर तमाम लोग…”

“बेशक, सबके सामने तुम्हारी हिम्मत ही न होगी, और जिसने पहले देखी होगी वह तुम्हे क्यों हाथ लगाने देगा।”

“जी, नहीं”, मैं हँसा, “लोगों को तो…”।

“अच्छा”, उसने आँख मारी, “आप कोई जीती-जागती चीज़ घर ले जायेंगे।”

“नहीं नहीं”, मैंने कहा, “लोगों को ही देखो… क्या यह कुछ कम रोचक है कि कितनी भीड़ है और सब अपने-अपने रास्ते जा रहे हैं और किसी को परवाह नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूँ क्योंकि मैं उन्हें देखता हूँ पर हस्तक्षेप नहीं करता। देखो न, इस तरह मुझे भी औरों के साथ एक अस्तित्व मिल जाता है और वे सब ज्यादा से ज्यादा स्वतंत्र रहते हैं। क्योंकि कम से कम दखल देते हैं।”

फिर अपनी बात सरल करने के लिए मैंने कहा, “मेरा मतबल है यह मुझे अच्छा लगता है।”

“हूँ, अहं, अहं, सिर्फ अहं,” उसने कहा, “अपने आपको जाने क्या समझते हो!”

“ठहरो, यह देखो, यह देखो!” मैंने पैर टेककर साइकिल रोक ली। वह कुछ दूर आगे जाकर रुका। सिर घुमाकर बोला, “अमाँ पा गये कुछ?”

वह एक आधी घरेलू चिड़िया थी, गौरैया कदापि नहीं, उससे कुछ ज्यादा रंगीन मेल की, जिसकी पीली चोंच होती है और पीले पंजे, काला सिर और कत्थई देह होती है। मुझे मालूम नहीं वह पिड़कुलिया है या देसी मैना, पर इस मन:स्थिति में उसे कभी नहीं देखा था जिसमें वह इस समय थी।

मित्र बोला, “यह यहाँ क्या करने आ गयी?” जैसे यह उन्हीं की गलती हो और अब उन्हें सहानुभूति के लिए मजबूर होना पड़ रहा हो।

चिड़िया बिना पर खुले हुए ही फड़फड़ाई, उसने शरीर का बोझ एक बार इधर, फिर उधर डाला और दम लेने लगी। कोलतार के एक कीचड़ में वह फंस गयी थी। बनती सड़क के लिए बजरी का एक ढेर पास ही लगा था, उस पर पाँच-छ: कौए और-और तरफ देखते हुए बैठे थे।

मित्र साइकिल घुमाकर पास आया, “साले, अभी से जमा हो गये? अमाँ मरने तो दो किसी को चैन से।”

क्या सचमुच चिड़िया मर रही थी। मर जाती। तारकोल बहकर वहाँ जमा हो गया था, उस पर धूल जम गयी थी और अनजाने में उस पर वह उतर पड़ी थी। काफी देर से वह छुड़ा रही होगी तभी कौओं ने देखा होगा- उड़ नहीं रही है तो खाद्य है।

सूरज डूब रहा था। ढलुआँ सड़क पर झुण्ड की झुण्ड मशीनें आदमियों को लेकर पीली रोशनी में पैठी जा रही थी। हम लोग जहाँ खड़े थे वहाँ यातायात ऐसा हो गया जैसे बहते पानी में कहीं कोई टहनी अटक जाये तो वह भँवर बना ले।।

जरा किनारे हो लें”, मैंने कहा, “नहीं नहीं, इधर से नहीं, चिड़िया से और दूर जाकर फुटपाथ पार करेंगे।” मित्र ने घूरकर देखा। हम लोग बिलकुल हाशिये पर जाकर खड़े हो गये पर वहाँ भी चिड़िया से करीब उतनी ही दूर थे।

चिड़िया के लिए कोई उम्मीद न थी। एक पंजा ज़रा-सा हुमसता तो दूसरी ओर ज़ोर पड़ता और वह फिर फँस जाती। चौंककर देखती और फिर इधर-उधर बदन को झटके देती और पंख न खोलती- शायद पंख खोलने से पंजे और घूसने लगते हों लेकिन उसका कलेजा मुँह को आ जाता।

मित्र ने कहा, “देखो यार, बिलकुल आदमियों की तरह कर रही है।”

छुड़ा दूँ, मैंने सोचा, इसमें सोचने की क्या बात है? पर क्या वह खुद कोशिश नहीं कर रही है, उसे अपने आप करने न दूँ। मैं समझ सकता हूँ कि खुद कोशिश करने का क्या अर्थ होता है और सहानुभूति एक जगह अनादर भी बन जा सकती है। वह इस समय एक महत्वपूर्ण संघर्ष कर रही है जैसे उसने जरूरी समझा है और जैसे वह ही कर सकती है। उसे करने दूँ? अन्त तक ले जाने दूँ – जैसे उसे सुखकर होगा।

“मूर्ख”, मित्र बोला, “उसे छुड़ा क्यों नहीं देता? आतंकवादी लोग दूसरों को सताये बिना रह ही नहीं सकते।”

उसने साइकिल दीवार के सहारे छोड़ दी और खुद आगे बढ़ा। मैंने रोक लिया, “रहो रहो। अपने अहं को थोड़ा और रोक रक्खो”, मैंने उससे मन में कहा।

वह रुक गया पर एक पत्थर उठाकर उसने कौओं पर फेंका; जिसे लगनेवाला था वह फुदककर किनारे हो गया, उसने इधर देखा तक नहीं।

न चिड़िया ही हमारी तरफ देख रही थी। उसने कौओं की ओर भी न देखा था, यद्यपि उनका होना वह जानती थी। वह डरी हुई थी, पर उसका डर एक परिस्थितिगत वास्तविकता थी। धीरे-धीरे वह उसके समकक्ष आ चुकी थी। स्पष्ट देखा जा सकता था कि उसकी कोशिश सिर्फ छूटकर उड़ जाने की है, कौए हैं तो हैं, और वे उसके फँस गये होने की स्थिति का एक अंग ही हैं।

तो क्या मैं छुड़ा दें। इसमें सोचना क्या है। पर वह अपने को छुड़ा लेगी, निश्चय ही छुड़ा लेगी। वह आखिरकार मिट्टी की नहीं है, भुसभरी भी नहीं है, और यहाँ उसके संघर्ष में क्या है जो मैं तरस खाते हिचकिचाता हूँ?

फिर भी, फिर भी, फिर भी… सहसा और देखते रहना असम्भव हो गया। आखिरकार मैं उससे बड़ा और ज्यादा ताकतवर था। मैं आगे बढ़ा।

पहली बार चिड़िया ने मुझे देखा। जिस तरह वह अभी तक नहीं करना चाह रही थी वैसे पंख फटफटाकर अपने को हुमासने लगी। एक कदम मैं और आगे बढ़ा और मन में कहा, बस क्षण भर में सब हो जायेगा।

चिड़िया ने कातर आँखों से मुझे देखा। उनमें केवल अविश्वास था। उसने चोंच खोल दी। और बुरी तरह डरकर वह छटपटाई।

मैंने कहा, “मैं तुम्हे छुड़ाने आ रहा हूँ।”

जकड़े हुए पंजों पर उसका शरीर दायें से बायें पागल की तरह डोलने लगा, जैसे कह रहा हो, नहीं नहीं…

मैंने कहा, “मैं तुम्हें आहिस्ते से छुड़ा दूँगा”।

उसने हाँफकर चोंच बन्द की और फिर खोली, कहा, नहीं, नहीं, मैं खुद छूटने को बेकरार हूँ।

मैंने कहा, ठहरो तो हालाँकि मैं जान गया था कि उसके सामने मैं कितना बेकार था। मेरे सामने वह सड़क की भीड़ का एक हिस्सा थी, जीता-जागता, जिसे पहले मैंने देखा था, पर उसका अपना अस्तित्व था जिस पर कोई हाथ नहीं डाल सकता था। मैं उसे केवल भयभीत कर सका था और मैं कुछ कर भी नहीं सकता था, पर उसने अपनी सारी ताकत जुटा ली थी और यह सिर्फ वही कर सकती थी। मैंने मौन रहकर उसे आँखभर देखा : जैसे सम्मोहित होकर वह एक पल थिर आँखों से मुझे देखती रही, फिर काँप कर ऐसे फड़फड़ाई जैसे यह उसका आखिरी फड़फड़ाना हो। फिर उसने पंख खोल दिये और उन्हें तान दिया। अचानक वह छूट गयी।

गज़ भर दूर उड़कर उसने धूल में पंजे रगड़े और मकानों की तरफ उड़ चली। कौओं में से एक ने एक बार कुँव किया और फिर सब बजरी के ढेर पर बदहवासों की तरह फुदकने लगे।

मित्र बोला, “अमाँ जाओ, तुमसे कुछ नहीं हो सकता।”

रंगीन आकाश और डूबते सूरज की तरफ बस्ती थी जिधर चिड़िया तैरती चली जा रही थी, उस पर से दृष्टि उतारकर मैंने पूछा, “क्या?”

वह बोला, “अमाँ हम तो खुश हुए थे कि चलो तुम्हे कुछ मिल गया पड़ा हुआ।”

“हाँ, मिला तो था”, मैंने कहा।

“मगर?” उसने पूछा।

“मगर,” मैंने कहा, “उसे तो चिड़िया अपने साथ लेकर उड़ गयी।”

रघुवीर सहाय
रघुवीर सहाय (९ दिसम्बर १९२९ - ३० दिसम्बर १९९०) हिन्दी के साहित्यकार व पत्रकार थे। दूसरा सप्तक, सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हँसो हँसो जल्दी हँसो (कविता संग्रह), रास्ता इधर से है (कहानी संग्रह), दिल्ली मेरा परदेश और लिखने का कारण (निबंध संग्रह) उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।