सबसे बुरे दिनों में आता है ख्याल
कि अब तक के सारे दिन नहीं थे इतने बुरे
ख्याल आता है कि इकहरे बुरे दिनों का होना डरावना तो है,
मगर खौफनाक है एक बुरे दिन का अगले में मिल जाना।
याद आती हैं दोस्तों के बीच गुज़री आलसी रातें
जिनमें थी नशे, फैंटसी और नंगी टाँगों के लिए जगह
जिनमें जगह थी,
हमेशा,
उनसे उठ कर चले जाने की…
वो घर याद आता है जिसमें आप कभी रहे ही नहीं
या वो जिसे छुआ बैकस्टेज मिलने वाले लोगों जितना; एक हाथ की दूरी से,
मगर आता है वो घर भी याद जिसमें जितने गिलासों में ढुली शराब
सुबह उतने ही कप चाय उबाली गयी।
प्रेम याद आता है
जो थकने, बिखर सकने को बिस्तर कभी न हुआ
सिखाया पर उसने, खूँट से भी रिश्ते निभा सकना
मन – दो बरस पुराना – पहचान आता ही नहीं
एतबार की भी होती है एक्सपायरी डेट,
इश्तेहार की तरह,
सबसे बुरे दिन में याद नहीं आता
दोस्त की सिग्रेट से चादर में हुआ सुराख़,
घर में छाए कबूतरों का आतंक,
और प्रेम के अंत में प्रेम का मर जाना
सबसे बुरे दिनों में ही जान पड़ता है
कितना ज़रूरी है एक न-बुरा सा दिन!