(पापा के लिए)

एक पेड़
मेरी क्षमता में जिसका केवल ज़िक्र करना भर है
जिसे उपमेय और उपमान में बाँधने की
न मेरी इच्छा है, न ही सामर्थ्य

एक पेड़
जिसे हमेशा विशाल और घना ही देखा है
जिसके बीज से वृक्ष बनने तक का संघर्ष
न ज्ञात है, न हो पायेगा

एक पेड़
जिसकी टहनियों से लटककर वह कद पाया है
कि खड़ा हो जाऊँ तो किसी अन्य से
न तुच्छ लगता हूँ, न भिन्न

एक पेड़
जो मौसमों से अनाधीन है और मेरे मिज़ाज के पराधीन
जो मेरी बेतुकी फलों की फ़रमाइशों पर
न कभी हँसा, न नाराज़ हुआ

एक पेड़
जो अपनी ओट में बिखरे हर एक बीज के
अपने से ऊँचे और गहन वृक्ष बनने तक
न थकना चाहता है, न बैठना

एक पेड़
जिसकी जड़ों ने ज़मीन को ऐसे पकड़ा
कि हर शाख़ का हर वर्क सदैव हरा रहने के लिए
न माली पर निर्भर था, न इंद्र पर

एक पेड़
जिसके तले बैठकर, उसके पत्तों के झुरमुटों के बीच से
मैंने कई बार धूप और बरसात ढूँढी
न मैं उन्हें मिला, न वे मुझे

एक पेड़
जिसके तने पर कुरेदा है मैंने कई बार
कभी मज़ाक में, कभी झुंझलाहट में
फिर भी न कभी फ़िक्र हुई, न ज़िक्र

एक पेड़
जो सिर्फ़ एक पेड़ नहीं, साया है
जिसकी परछाई से दिशाओं का अनुमान लगाता रहा
न कभी भटका, न जिज्ञासा कम हुई

एक पेड़
जो यथार्थ एक पेड़ ही है
धड़ और जीव, दोनों से सिर्फ़ देने वाला
न कोई माँग, न चाह

काश मैं एक अच्छा बीज ही बन पाऊँ…

पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!