हर बार लौटकर
जब अन्दर प्रवेश करता हूँ
मेरा घर चौंककर कहता है ‘बधाई’
ईश्वर
यह कैसा चमत्कार है
मैं कहीं भी जाऊँ
फिर लौट आता हूँ
सड़कों पर परिचय-पत्र माँगा नहीं जाता
न शीशे में सबूत की ज़रूरत होती है
और कितनी सुविधा है कि हम घर में हों
या ट्रेन में
हर जिज्ञासा एक रेलवे टाइमटेबल से
शान्त हो जाती है
आसमान मुझे हर मोड़ पर
थोड़ा-सा लपेटकर बाक़ी छोड़ देता है
अगला क़दम उठाने
या बैठ जाने के लिए
और यह जगह है जहाँ पहुँचकर
पत्थरों की चीख़ साफ़ सुनी जा सकती है
पर सच तो यह है कि यहाँ
या कहीं भी फ़र्क़ नहीं पड़ता
तुमने जहाँ लिखा है ‘प्यार’
वहाँ लिख दो ‘सड़क’
फ़र्क़ नहीं पड़ता
मेरे युग का मुहावरा है
फ़र्क़ नहीं पड़ता
अक्सर महसूस होता है
कि बग़ल में बैठे हुए दोस्तों के चेहरे
और अफ़्रीका की धुँधली नदियों के छोर
एक हो गए हैं
और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ
मेरी जिह्वा पर नहीं
बल्कि दाँतों के बीच की जगहों में
सटी है
मैं बहस शुरू तो करूँ
पर चीज़ें एक ऐसे दौर से गुज़र रही हैं
कि सामने की मेज़ को
सीधे मेज़ कहना
उसे वहाँ से उठाकर
अज्ञात अपराधियों के बीच में रख देना है
और यह समय है
जब रक्त की शिराएँ शरीर से कटकर
अलग हो जाती हैं
और यह समय है
जब मेरे जूते के अन्दर की एक नन्हीं-सी कील
तारों को गड़ने लगती है।
केदारनाथ सिंह की कविता 'सुई और तागे के बीच में'