फ़रवरी इतना बुरा भी नहीं है!
मैं यह समझ पाने में हमेशा असमर्थ रहा कि
आदिम सभ्यताओं को इस महीने से इतनी चिढ़ क्यों थी?
रोमन सभ्यता के पुराने लोग
भले फ़रवरी को विषाद और निराशा से जोड़ते रहे हों
विषमताओं में आते हुए सम को अपशकुन मानते रहे हों
या उनके पास कम रहे हों महीने अपने बिछड़ों को याद करने के लिए
लेकिन छूटे हुओं को याद करना इतना बुरा तो नहीं होता
(क्या बाक़ी महीनों में उनकी स्मृतियाँ नहीं लौटतीं?)
दो दिन कम कर देने से प्रतीक्षाएँ छोटी नहीं हो जातीं
स्मृतियों का भार उतना ही बढ़ता जाता है
जितना उनकी रुईयों को लेकर
पीड़ा की नदी में पैठता जाता है मन
फ़रवरी तुम्हें दरवाज़ा नहीं लगता क्या?
जिससे ऋतुराज हाथों में पीले फूलों का गुच्छा लिए
पीताम्बर पहने शरद के दूसरी ओर से चला आ रहा हो
मिहिका ने उद्भजों से लौटने का कर लिया हो क़ौल
एक सुगन्ध उड़ती हुई आसपास भीनी-भीनी वसन्त की
नरम-सी हवा और लौटता हुआ शीत का एक लदा हुआ शकट
मौसम भले कितने भी आते हों
वसन्त के आने का सुख
प्रत्याशाओं को पुनर्जीवित कर देता है
पतझड़ की मार झेलता एक प्रपर्ण
अपने तीन-चार पत्तों से लड़ रहा हो
दुर्दिनों का युद्ध
सहसा उतर गया हो जीवन जैसे उसमें
नीड़ों की फूस पर बैठती हुई
सम्भावनाओं के साथ
मेरा यक़ीन करो
जला हुआ सब का सब जा चुका है
यह राख वापस मिट्टी की तरफ़ लौट रही है
नये निर्माण की तरफ़
यह किसी यक्ष का निवास स्थान नहीं है
प्रकृति कभी छल नहीं करती
मैं जानता हूँ इस महीने को
मेरी नसों में बसता है बसन्त
हृदय की स्पंदन ध्वनियों में बजता है फ़रवरी का राग
क्योंकि मैंने पहली साँस यहीं ली थी
यहीं रोया था पहली बार
एक धरती की कोख छोड़कर दूसरी धरती की कोख में आने पर
यही हँसा था पहली बार
एक पेड़ की बड़ी-सी गोद में उतरकर
यहीं मेरी इंद्रियों को जीवन बोध हुआ था पहली बार
इसीलिए मैं जानता हूँ इस महीने के पहलेपन को
तुमसे थोड़ा अधिक शायद
फ़रवरी एक जगह है
जहाँ पहुँचने में मैं पूरा एक साल लगाता हूँ
कभी-कभार ऐसे ही ठिठोली में सोचता भी हूँ कि
बाक़ी महीनों को छोटा करके
उनके दिन फ़रवरी को दे दिए जाएँ
ताकि रुकने का अन्तराल
पहुँचने की हड़बड़ी से थोड़ा ज़्यादा हो।
फ़रवरी: वसन्त और प्रेम की कुछ कविताएँ