किताब अंश: ‘लेटर्स टू मिलेना’
अनुवाद: लाखन सिंह

प्रिय मिलेना,

काश! ऐसा हो कि दुनिया कल ख़त्म हो जाए। तब मैं अगली ही ट्रेन पकड़, वियना में तुम्हारे द्वार पर आकर कहता, “मेरे साथ चलो, मिलेना! हम एक-दूजे से बिना किसी संदेह, भय और नियंत्रण के बेशुमार प्रेम करेगें। क्योंकि दुनिया कल ख़त्म हो रही है।”

शायद हम एक-दूसरे से बिना कोई शर्त इसलिए प्रेम नहीं कर पाते क्योंकि हमें लगता है कि हमारे पास अभी समय है या फिर हम समय के साथ सीख जाएँगे।

लेकिन तब क्या जब समय ही न हो? या तब क्या जब समय जिसे हम जानते हैं, वो हमारे लिए मायने ही नहीं रखता? आह! अगर कल ही दुनिया ख़त्म होती तभी हम एक-दूसरे के काम आ सकते।

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और वास्तव में हम दोनों हमेशा एक ही चीज़ लिखते हैं। अब मैं तुम्हारी तबियत के बारे में पूछूँगा, फिर तुम इसके बारे में लिखोगी, अब मैं मरना चाहूँगा फिर तुम, अब मैं तुम्हारे सामने छोटे लड़के की तरह रोना चाहता हूँ, और तुम मेरे सामने एक छोटी लड़की की तरह। और एक बार, और दस बार और हज़ार बार और बार-बार और हमेशा मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ और तुम भी यह ही कहती हो। बस, बस। और अभी तक एक भी पत्र इस बारे में नहीं कि डॉक्टर ने क्या कहा, तुम आलसी, तुम बुरे पत्र लिखने वाली, तुम शैतान, तुम लाड़ली, तुम—अब, और क्या? कुछ भी नहीं, लेकिन तुम्हारी गोद में चुपचाप लेटे रहना, बस।

* * *

मैं देख रहा हूँ कि तुम टेबल पर झुकी हुईं अपने काम में व्यस्त हो, तुम्हारी गरदन एकदम नंगी, मैं ठीक तुम्हारे पीछे खड़ा हूँ, तुम्हें इसकी कोई ख़बर नहीं—तुम बिल्कुल भी मत घबराना अगर तुम्हें गले के पीछे मेरे होंठों की छुअन महसूस हो, मेरा बिल्कुल भी इरादा नहीं था चुम्बन का, यह सिर्फ़ असहाय प्रेम है…

* * *

दिन बहुत छोटा है, तुम्हारे और कुछ कछुओं के साथ यह अच्छे से जल्दी बीत जाता है। ये काफ़ी होगा कि थोड़ा-सा समय मुझे मिल जाए जिसमें मैं असली मिलेना को कुछ लिख सकूँ क्योंकि वास्तविक से भी वास्तविक तो यहाँ रहती है पूरे दिन, मेरे कमरे में, बालकनी पर, बादलो में।

* * *

मैं थक चूका हूँ, अब और कुछ भी नहीं सोच सकता, बस चाहता हूँ कि तुम्हारी गोद में सिर रखकर लेटा रहूँ,  तुम अपने कोमल हाथों से मेरे बाल सहलाती रहो, हमेशा, हमेशा के लिए, अनंत काल तक।

* * *

मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है अथाह, अतिशय, भयानक और पागल कर देने वाली याद।

तुम्हारा..

(अब मैं अपना नाम भी भूलने लगा हूँ—तुम्हारे साथ यह दिन ब दिन संक्षिप्त होता गया और अब सिर्फ़: तुम्हारा)

'सफ़िया का पत्र जाँ निसार अख़्तर के नाम'

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