मेरे उर के तार बजाकर जब जी चाहा
तुमने गाया गीत। मौन मैं सुनने वाला
कृपापात्र हूँ सदा तुम्हारा, चुनने वाला
स्वर-सुमनों का। भीड़ भरा है, जो चौराहा!
दुनिया का, उसमें केवल अस्फुट कोलाहल
सुन पड़ता है। किसको है अवकाश, तुम्हारा
गान सुने, बदले अपने जीवन की धारा
अमृत-स्रोत की ओर। आह, भीषण हालाहल!
समा गया है साँस-साँस में घृणा-द्वेष का।
देख रहा हूँ व्यक्ति-समाज-राष्ट्र की घातें
एक-दूसरे पर कठोरता, थोथी बातें
संधि-शांति की। विजय है दल दम्भ-त्वेष का।
गाओ, मन के तारों पर, जी भरकर गाओ
जहाँ मरण का सन्नाटा है, जीवन लाओ।