मेरे उर के तार बजाकर जब जी चाहा
तुमने गाया गीत। मौन मैं सुनने वाला
कृपापात्र हूँ सदा तुम्हारा, चुनने वाला
स्वर-सुमनों का। भीड़ भरा है, जो चौराहा!

दुनिया का, उसमें केवल अस्फुट कोलाहल
सुन पड़ता है। किसको है अवकाश, तुम्हारा
गान सुने, बदले अपने जीवन की धारा
अमृत-स्रोत की ओर। आह, भीषण हालाहल!

समा गया है साँस-साँस में घृणा-द्वेष का।
देख रहा हूँ व्यक्ति-समाज-राष्ट्र की घातें
एक-दूसरे पर कठोरता, थोथी बातें
संधि-शांति की। विजय है दल दम्भ-त्वेष का।

गाओ, मन के तारों पर, जी भरकर गाओ
जहाँ मरण का सन्नाटा है, जीवन लाओ।

Book by Trilochan:

त्रिलोचन
कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है। वे आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक थे। इस त्रयी के अन्य दो सतंभ नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह थे।