‘Gaon Desh’, a story by Amit Tiwary

जब से रामा बाबा फ़ौज से रिटायर हुए थे, यानि कि लगभग बीस साल पहले, तब से गाँव में ही रहे। दो बेटे, एक बेटी और एक मृदु स्वभाव की धर्मनिष्ठ वृद्धा पत्नी से भरा-पूरा परिवार था। सब बच्चों के विवाह हो चुके थे और दूर महानगरों में जा बसे थे। धार्मिक और आर्मी कैंटोनमेंट के अनुशासित माहौल में पले-बढ़े ये बच्चे अब भी अपने परिवार और मातृभूमि से गहरे तक जुड़े थे। इसकी वजह प्रेम था या भयजनित सम्मान, कहना मुश्किल है।

एक पैर से लंगड़े रामानंद त्रिपाठी भारतीय सेना में भर्ती होने वाली गाँव की पहली पीढ़ी से थे। जाति से ब्राह्मण और भूतपूर्व सैनिक के अलौकिक योग से उनका सम्मान उस पीढ़ी के बाक़ी लोगों से अधिक था। सन पैंसठ की लड़ाई में शास्त्री जी के आह्वान पर गाँव के क़रीब बीस लड़के तुरत-फुरत सीधी भर्ती के रास्ते सेना में जा पहुँचे। देशभक्ति ही केवल एक वजह थी, ऐसा कहना ग़लत होगा। भर्ती के ज्ञापन से पहले ये बात गाँव में आ पहुँची थी कि सेना में दोनों टाइम रोटी के साथ दूध और केले भी दिए जा रहे हैं। ये वो समय था जब देश में मुख्य अनाज के तौर पर लाल गेंहूँ और सांवा-कोदो की खेती और सेवन होता था और अधिकांश जनता को ये भी एक ही जून नसीब था। लेकिन विकास की राजनैतिक-सामाजिक परिभाषा में देश के लिए लड़ना पेट के लिए लड़ने से ज़्यादा सम्मानजनक हो गया था।

गाँव के सभी युवाओं ने युद्ध में बढ़-चढ़कर, पूरे सिंचित किसानपुत्रीय पराक्रम के साथ हिस्सा लिया। कुछ उसी युद्ध में ही खेत रहे, कुछ इकहत्तर में और बचे लोग नैसर्गिक मृत्यु प्राप्त कर चुके थे। गाँव में एक रामा बाबा ही बचे थे जो उन युद्धों की मर्मांतक और शौर्यपूर्ण कहानियाँ सुनाया करते।

सभी युद्ध पाकिस्तान से हुए थे और जैसा कि पाकिस्तान से जुड़े सभी मसलों में होता है कि उधर के सियासतदानों के साथ-साथ इधर के मुसलमानों को भी बराबर ज़िम्मेदार माना जाता है। और जो लोग उन्हें ज़िम्मेदार न मानने की विशाल उदारता दिखाते हैं वो या तो ऐसे माहौल से मन ही मन आनन्द प्राप्त करते हुए सहमति रखते या धर्म और राष्ट्र को गड्ड-मड्ड करते मज़ाक – जिनको वो ‘हल्का-फुल्का’ बताते – करते रहते।

रामा बाबा बीस साल से गाँव में थे और सेना जनित धर्मनिरपेक्ष अनुशासन जाता रहा था। शान्ति सहित विकास एक कठिन प्रकिया होती है और कटुता समेत विध्वंस एक अजीब-सा उन्मादी सुख लिए आसान प्रकिया। रामा बाबा भी पहले यदा-कदा और अब अक्सर ऐसे मज़ाकों, गर्मागर्म बहसों का हिस्सा होने लगे थे। बाबरी, मुम्बई, हाशिमपुरा से लेकर गोधरा सब आँखों के सामने होता हुआ देखे रामा बाबा भीड़ की लय में मिलते हुए उससे सहमत और एकान्त में जीवन के अनुभवों और धार्मिक-नैतिक मूल्यों की कसौटी पर तौलकर उस क्षणिक उन्माद जनित सुख और उत्तेजना से घोर असहमत हो जाते। साथ ही एक अज्ञात अनहोनी का भय भी बना रहता जिसको रेखांकित करने में भी वो असफल थे।

आये दिन का यह आन्तरिक द्वंद्व, उनके न चाहते हुए भी, यदा-कदा बेवजह के उनके ग़ुस्से और चिड़चिड़े जवाबों में परिलक्षित हो जाता। फिर इस शर्मनाक व्यवहार का एक अलग आन्तरिक पछतावा। इतने सारे मनोवैज्ञानिक उलट-पुलट के बीच न तो वे उन मण्डलियों को छोड़ पाते और न इस द्वंद्व को कुचलकर साम्प्रदायिक ही हो पाते। आपको क्या ज़्यादा परिभाषित करता है, ये जानने का कोई अचूक सूत्र या सिद्धान्त नहीं है। आप कहाँ, कब, किसके साथ और किस उद्देश्य से हैं – जैसे तथ्य भी आपकी प्रतिक्रिया को बाक़ी सभी मूल निर्माता तत्वों जितना ही नियन्त्रित करते हैं।

इसी सब उहापोह में जब जीवन इंच दर इंच ग्लेशियर की तरह गलता जा रहा था कि एक दिन उन्होंने कोठरी की खिड़की से आठ-दस लड़कों का झुण्ड गाँव में अन्दर दौड़कर जाते देखा। रामा बाबा हड़बड़ा कर उठे, चश्मा लगाया, लाठी ली और तेज़ी से भचकते हुए उस ग़ुबार के पीछे चले। गाँव के और लोग भी उधर ही जा रहे थे। लड़के गाँव के दक्खिन टोले के छोर की तरफ़ मुड़े। रामा बाबा का अज्ञात भय जैसे साकार रूप लेने लगा। वे हाँफते, पैरों और लाठी को एक लय में साधते, तेज़ी से उनके पीछे भागे।

लड़के दक्खिन टोले के छोर पर पहुँचे, जहाँ आठ-दस घर मुसलमानों के थे। वे उनमें से तीसरे घर में घुसे। लगभग ढहता हुआ-सा, मैले आसमानी रंग से पुता वो घर बदरुद्दीन का था। बूढ़े और लगभग अंधे हो चुके बदरुद्दीन वहाँ अपनी दो वृद्धा बीवियों और एक बेटे-बहू के साथ रहते थे। बाक़ी चार बेटियों का निकाह पड़ोस के गाँवों या क़स्बों में हो चुका था। बेटा जमालुद्दीन या जमाल, गाँव से लगी मुख्य सड़क पर जमे छोटे से बाज़ार में एक मटन की दुकान चलाता था और उसके नशे आदि के बाद घर मुश्किल से चल पाता था।

भीड़ जमाल का नाम लेकर चीख़ने लगी। थोड़ी देर प्रतीक्षा के बाद उन लड़कों ने सामने लगा फूँस का छप्पर ढहा दिया और फिर और भी ज़ोर से गालियाँ देकर जमाल को बुलाने लगे। भीड़ भी ख़ूब जमा हो गयी। रामा बाबा अभी पीछे थे और उनका कलेजा दमकल के इंजन की तरह भड़-भड़-भड़-भड़ करता हुआ चल रहा था। वे चिल्लाना चाह रहे थे पर गला सूख गया था। भीड़ में से एक लड़का अन्दर घुसा और बदरुद्दीन को पीटता हुआ बाहर लाया।

“ये साले कटुए खाते यहाँ का हैं और गाते वहाँ का… आप सब तो अपने-अपने मज़े में डूबे हैं… आपके इसी निकम्मेपन से ये घुन पूरे देश को चाले दे रही है… जिस दिन वो हरामी पाकिस्तानी हमारे सोते हुए सैनिकों को मार देते हैं… उस रात इनके यहाँ गोस बनता है.. सुनिएगा कभी, बड़ी हाहा हीही की आवाज़ आती है.. जैसे कल आ रही थी.. और इस दढ़ियल बुड्ढे बदरू का लौंडा! रात में गाय काटता और बाहर सप्लाई करता है.. देह देखी है उसकी? कैसा मोटा-लाल हुआ जा रहा है! हर समय नशे में धुत्त रहता है.. किसी दिन मद में आपकी बेटी को उठाकर नेपाल बेच आए तो आइएगा रोते! स्वामी जी ने साफ़ कह दिया है.. धरती स्वच्छ करनी होगी!”

ऐसी पक्षाघातिक बातें करने के बाद उस लड़के ने पास पड़ी एक बल्ली उठायी और निर्ममता से बूढ़े बदरुद्दीन को पीटने लगा। बदरू इतने बूढ़े और कमज़ोर थे कि चीख़ तक न निकाल पा रहे थे। कपड़े फट रहे थे, देह काँप रही थी और पोपले मुँह से कुछ शब्द निकलना चाह रहे थे।

लगभग दौड़ते हुए रामा बाबा पहुँचे। भीड़ और लड़के सम्मान में कुछ क्षण रुके। फिर तमाम पिछली बैठकों में मुसलमानों के लिए उनके सार्वजनिक विचारों से अपनी समानता याद कर दुबारा उस कुत्स्व में जुट गए। रामा बाबा आगे बढ़े, और ज़ोर से डाँटते हुए लाठी उस लड़के की बाँह पर मार दी। लड़का एक हाथ में ही भरभरा कर ढह गया। सब भौंचक्के थे। वे लगभग अचेतन-सचेतन मिश्रित उस अवस्था में थे जिसमें वो आदमी होता है जिसके सामने जादूगर काँच का लोलक नचाकर माल-मत्ता ले उड़ा होता है।

रामा बाबा कुछ बोले नहीं और धीरे-धीरे घिसटते हुए घर लौट आए। ख़बर पहुँचने पर शाम को चौकी से अधेड़ हवलदार आया। उससे पता चला कि पैंसठ के युद्ध में बदरुद्दीन, रामा बाबा की ही इन्फ़ेंट्री में था और टीबी से पहले माँ और फिर बाप का इंतकाल हो जाने से सेना छोड़कर गाँव आना पड़ा। उसी ने बताया कि युद्ध में ही एक दिन इनकी टुकड़ी जब पाकिस्तानी सीमा में थोड़े भीतर तक घुस गयी तो रामा बाबा की जांघ में दो गोलियाँ लगीं और वे वहीं बेहोश होकर गिर पड़े। उधर से पाकिस्तानी फ़ौज ने दोतरफ़ा हमला शुरू कर दिया और जयहिंद की सेना को रिट्रीट करना पड़ा। कमज़ोर इकहरे बदन के बदरुद्दीन अपने सारे हथियार और रसद वहीं फेंककर रामानंद को लगभग घसीटते-लुढ़काते बटालियन तक ले आए, जहाँ से उनको जम्मू के अस्पताल ले आया गया।

चुनाव सर पर थे और कल स्वामी जी की रैली थी। हवलदार के पास तफ़्तीश का समय नहीं था। घटना दर्ज करने की औपचारिकता निभाकर चला गया। गाँव के दो छोर पर बदरुद्दीन और रामा अपनी-अपनी कोठरियों में मुँह तोपे, निःशब्द रुलाई में आकण्ठ डूबे हुए थे और रामा बाबा के आन्तरिक द्वंद्व से जन्मी उनकी निजी लज्जा कोठरी की खिड़की से रिस-रिसकर सार्वजनिक हो रही थी और पूरे गाँव को काठ किए जा रही थी।

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