छत तो है बस मकाँ ढूँढता हूँ
घर में घर का निशाँ ढूँढता हूँ।
जमीं पे सबका हक़ है अपना अपना
अब तो रहने को आसमाँ ढूँढता हूँ।
ज़ख्मी हवा का बसेरा हो चला यहाँ
सो रहने को मुक़म्मल जहाँ ढूँढता हूँ।
दुश्मनी तो मिटा दी शहर ने, फिर भी
दोस्ती के लिए राज़दाँ ढूँढता हूँ।