अब मैं घर में पाँव नहीं रखूँगा कभी
घर की इक-इक चीज़ से मुझको नफ़रत है
घर वाले सब के सब मेरे दुश्मन हैं
जेल से मिलती-जुलती घर की सूरत है

अब्बा मुझसे रोज़ यही फ़रमाते हैं—
“कब तक मेरा ख़ून-पसीना चाटोगे?”
अम्माँ भी हर रोज़ शिकायत करती हैं
“क्या ये जवानी पड़े-पड़े ही काटोगे?”

भाई किताबों को रोता रहता है सदा
बहनें अपना जिस्म चुराए रहती हैं
मैले कपड़े तन पे दाग़ लगाते हैं
भीगी आँखें जाने क्या-क्या कहती हैं

चूल्हे को जी-भर के आग नहीं मिलती
कपड़ों को संदूक़ तरसते रहते हैं
दरवाज़ा-खिड़की मुँह खोले तकते हैं
दीवारों पर भुतने हँसते रहते हैं

अब मैं घर में पाँव नहीं रखूँगा कभी
रोज़ यही मैं सोच के घर से जाता हूँ
सब रस्ते हिर-फिर के वापस आते हैं
रोज़ मैं अपने आप को घर में पाता हूँ!

मोहम्मद अल्वी की नज़्म 'मछली की बू'

Book by Mohammad Alvi:

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