1

भाषाओं में नहीं थीं जगहें
न ही था इतना धैर्य कि
एक भागते हुए मन को आवाज़ देकर हौले-से रोक लें
बुला लें पास जिसमें न संदेह हो न सकुचाहट
फैले हुए शब्दों को आसपास ही चुनते रहने की
और कोई बड़ा शब्द बैठकर कुतरते रहने की

सरपट भागती हुई सीढ़ियाँ
सीधे खड़े पेड़
टेढ़ी-मेढ़ी ऊबड़-खाबड़ मेड़ें
आड़ी-तिरछी दीवारें
और गुज़रते हुए राहगीरों के चप्पलों-जूतों की थाप के बीच कहीं
अपने होने की जगह खोजता रहा

मन हमेशा गिलहरियों की तरह भटकता रहा
एक डाल से दूसरी डाल
एक छाँव से दूसरी छाँव
जिस मन को कहीं डिगना नहीं था
वह इकट्ठा करता रहा छोटी-छोटी कोशिशें
ताकि जब प्रेम आए
एक लम्बी शीत ऋतु का भेष धरकर
तब तुम्हारे लिए इस गिलहरी के कोटर में
सिर्फ़ जगह नहीं हो
कुतरने के लिए दुनिया का एक इकट्ठापन हो
और इस प्रेम-ऋतु को जीने के लिए
एक लम्बा गहरा चैन।

2

एक अनकही इच्छा तक रोज़ लौटना
कितना मुग्ध कर देता है कि
अभी बचा हुआ है कुछ पूरा होने को
एक दौड़ बाक़ी है अन्तिम, भले ही लड़खड़ाती ही क्यों न हो

कहीं भी रहता आया होऊँ
नज़रें दौड़ाकर तुम्हें ज़रूर ढूँढा है मैंने
उदासी चेहरे पर भले एक नक़्शा उकेरती हो
भर्राई हुई आवाज़ जो कण्ठ से निकल भी नहीं पाती
उस अकण्ठ स्वर से भले ही ख़ुद को कोसता रहा होऊँ
लेकिन दो-चार फुटकर पुचकार और किलकती हुई नन्ही आहटों से तुम्हारे दौड़ते हुए छोटे-छोटे पाँव
फुदकती हुई पूँछ जैसे कोई विजय पताका हर क्षण लहरा रही हो और
पतली मूँछों पर बार-बार फिरते हुए दोनों हाथ कि अभी एक सरपट दौड़ लगानी हो
तुम्हारी इस अर्भक देह के मोहपाश में पता नहीं कितने जन्मों से हूँ

तुम वही सदेह इच्छा हो
जिसे किसी से नहीं कहा मैंने
लेकिन ढूँढा है हर रोज़
पाया है हर रोज़ उसी तरह सलामत
कुछ न कुछ कुतरते हुए
कहीं न कहीं भागते हुए

मैंने ऐसे संसार की कल्पना भी नहीं की है
जिसमें तुम न हो
मेरे कल्प के जीवट साक्ष्य
मेरा मन यदि एक शरीर पाता तो तुम-सा होता
गिलहरी!

3

जब-जब मैं पेड़ हुआ
कंधे फैलाए लदा मौसमों से
मेघ से
सस्य से
उबसते रहस्य से
अंधेपन की हरियाली से भरा
शल्ल पर सिहरते-बिखरते वात्सल्य को पाया
आपादमस्तक दौड़ते प्राण को देखा मैंने
नन्हे जीव की तन्वंग काया में
सूखे किसी अंग पर भी फुदकता स्नेहिल स्पर्श
विश्वास से भरता रहा मुझे कि
मैं पेड़ नहीं—
गिलहरी हूँ

यह पेड़पन तो बस एक भ्रम है दुनिया की आँखों में
इस स्थावर देह की गति
अपना ओक इतना फैला देने में है कि
गिलहरी होने की चपलता को नापने के लिए पूरी आकाशगंगा मिले
कुतरने के लिए रुई के पहाड़
और खेलने के लिए अनगिन तारिकाएँ

जब जब मैं घास हुआ—बाँस हुआ
रेत हुआ खेत हुआ
छत हुआ मुण्डेर हुआ
आकांक्षाओं का ढेर हुआ
ओस हुआ नमी हुआ
इतना कि आदमी हुआ
अपने होने में यह मानता रहा कि
मैं इनमें से कुछ नहीं—
गिलहरी हूँ।

4

तीक्ष्ण—आवर्त कण्ठ संगीत
नहीं मिलाने देता सुर में सुर
इतना जंगम लघुकाय शरीर और
प्राण की व्याकुल चपलता
नहीं खोजने देती अनुगम

हथेलियाँ अखरोट सम्भाले बैठी रहती हैं
मन फुदकती हुई अठखेलियों की बाल-चेष्टा में फँसा रहता है

प्रेम हमेशा एक गिलहरी के पास आने की
प्रतीक्षा की तरह रहा।

5

मानव सभ्यता से पहले से ही हैं
गिलहरियाँ यहाँ—
इयोसीन युग से ही
इस हिसाब से प्रतीक्षा गिलहरियों के हिस्से अधिक आयी
इसीलिए प्रेम भी उनके हिस्से अधिक आया।

मुदित श्रीवास्तव की कविता 'गिलहरी की उड़ान'

किताब सुझाव:

आदर्श भूषण
आदर्श भूषण दिल्ली यूनिवर्सिटी से गणित से एम. एस. सी. कर रहे हैं। कविताएँ लिखते हैं और हिन्दी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ है।