आपाधापी में गुज़रते समय से गुज़रकर
लगता है कि हम मनुष्य नहीं रहे
समय हो चले हैं
हम बस बीत रहे हैं—लगातार।
हमारा बीतना किसी निविड़ अन्धकार में जैसे गिर रहा है
हमारी बरामदगी किसी के लिए सम्भव नहीं।
हमारा वर्तमान, जहाँ से हम गिर रहे हैं, एक महत् शून्य है
जिसकी परिधि पर
हमारी हताशा को पुकारते कुछ जोड़ी हाथ हैं
और उनकी पहुँच से बहुत दूर हम
अपने गिरने से अनजान
अपने विचारों की गति से, बस गिरते जा रहे हैं।
नरेश सक्सेना की कविता 'गिरना'