‘Goonge Ka Gud’, a poem by Niki Pushkar
पकी देह में कच्चा मन
रहता है,
संकोच, लिहाज़, मर्यादा
सब के सब योग्यता की
परीक्षा पर
प्रतिपल तत्पर बैठे होते हैं,
वाणी बन्दी है,
भावनाएँ कण्ठ में अटका हलाहल,
धैर्य का उत्तरदायित्व
सबसे दुसाध्य है
ज़रा चूक पर
सब धराशायी हो जाने का भय
व्यवहार में आ जाता है
अतिरिक्त साज-सम्भाल
न प्रेयस भावनाएँ प्रकट हो पाएँ
न ही वचन दिए-लिए जाएँ
अधिकार-क्षेत्र बस इतना कि
आधे-अधूरे उलाहने
और निर्बल सी शिकायतें ही
साथ दे सकें कभी-कभार
एक दुनिया धरातल पर और
दूसरी मन के इन्द्रजाल में उलझी
कभी व्यक्ति धरातल पर
और कभी स्वप्नाकाश में होता है
यह पकी उम्र का प्रेम
गूँगे के गुड़ जैसा होता है
महसूस होता है
ज़ाहिर नहीं होता!
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