इस किताब के बारे में न लिखता तो गुस्ताख़ी सी हो जाती। स्कूल के बाद शायद इतने विस्तार से पंजाबी अब ही पढ़ी है। और दुःख हुआ, कि इतने साल क्यूँ नहीं पढ़ी। शायद किताब इतनी दिलचस्प न होती तो यह भी बीच में छूट जाती। मगर सच कहूं तो अंत के कुछ पन्ने ऐसे पढ़े हैं कि एक-एक लफ़्ज़ का रस निकाल लूँ किसी तरह, ख़त्म करने को जी नहीं चाहता था।

अनवर अली की आपबीतियों पर आधारित इस किताब (संस्मरण) की ख़ास बात यह है कि इसकी कोई दिशा नहीं है। दो बातें इधर की, दो उधर की कर दी, किसी सांझे तार से दोनों को जोड़ दिया, और वहाँ तीसरी बात शुरू कर दी। पहले ही सफ़्हे पर अनवर लिखते हैं-

“मैं कुझ लिखना होवे ते एधर दियां ओधर दियां तों ही शुरू करना। काग़ज़ काले कर कर ओहनां दियां गेंदां बना के सुट्टदा जानां। एह्नां विचों ई कोई गेंद किसे वेले रेड़े पै जांदी ए ते मैं अपना बॉल पॉइंट फड़ी एहदे पिच्छे तुर पैना।”

यह लिखने का अंदाज़ बेहद निराला लगा। ऐसा है जैसे कुछ वक़्त के लिए अनवर अली आपके अज़ीज़ दोस्त हो जाएँ और आप रोज़ शाम उनके यहाँ चाय नाश्ते के लिए बैठें। चुस्कियां लेते जाएँ और क़िस्से एक के बाद एक सुनते जायें। मैं तो चाय पे बैठ के डिनर के बाद ही उठता। रात भी लोरी की तरह सुनता-सुनता सो जाता और सुबह उठ के रात की बातें फिर से पढ़ता। बातें बँटवारे के वक़्त से शुरू हो कर कभी कुछ बरस आगे लाहौर आ जाती हैं तो कभी कई साल पीछे लुधियाना के फीलगंज पहुँच जाती हैं।

जिस बेतकल्लुफ़ी से लेखक हिंदू, सिख, मुसलमान के लफ़्ज़ कहता है, मैं ही लजा के इधर-उधर देख लेता था कि कोई सुन तो नहीं रहा। ज़ात का ज़िक्र, ओहदे का ज़िक्र, मज़हबी झगड़ों का बार-हा ज़िक्र गुज़रे वक़्त की तस्वीर तो है ही, चलते वक़्त का आईना भी है। हिंदू मुसलामानों की तमाम बातें सुनाते हुए अनवर ख़ुद कहीं भी मज़हबी या कट्टर नहीं नज़र आते। अपनी जवानी की हिमाक़तें, बचपन की बेवकूफ़ियाँ आप क़ुबूल करते चलते हैं। इसलिए किताब किसी मक़ाम पर भी किसी एक ज़ात के ख़िलाफ़ या किसी एक के हक़ में खड़ी होती ही नहीं है, बल्कि इस तरह की हर अपरिपक्वता की खिल्ली उड़ाती अपनी राह चलती जाती है। मज़हबी फ़सादों की आज से मिलती-जुलती शक्ल का एक क़िस्सा और उस पे तंज़ देखिये-

“कृष्ण नगर ख़ालिस हिंदू मोहल्ला, सिख वी होने पर मुसलमान उक्का कोई न। ओस दिन किसे ने ओथे मुसलमान वेख ल्या ते मार के ग्राउंड दे इक कोने विच रख दित्ता। पोलीस आई ते ओह हिंदू निक्लेया। हिंदू चूहड़ा। दाह्ड़ी दो कु महीने दी रखी होई, लीड़े वी फटे पुराने। मुसलमान ई लगदा। मुसलमान समझ के मार दित्ता। मगरों सयाने हो गए, हिंदू वी मुसलमान वी, कपड़े लाह के वेख लैंदे।”

तंज़ की बात की जाए तो यह सिर्फ़ भीड़ पर नहीं है। किताब में कई जगह बड़े बड़े सयानों पे, ख़ास तौर से तथाकथित तरक्कीपसंदों पे ख़ूब लतीफ़े कसे हैं।

“पाकिस्तान दे मुशैरेयां विच जद साहिर दी चंगी ‘साहिर साहिर’ होण लग्गी ते एथे दे तरक्कीपसंदां नूं एह गल्ल पसंद न आई।”
“इंक़लाब दियां गल्लां ते एह हर मीटिंग ते करदे जिवें हेठ पौड़ियाँ कोल खड़ा होवे, बस हाक मारण दी लोड़ ए। पर इक दिन इंक़लाब बिन बुलाएयाँ ई पोलीस दी वर्दी पा के फ़ैज़ दे घर चढ़ आया।”

यह फ़ैज़ फ़ैज़ल हसन है, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ नहीं। उनका इस किताब में अलग मक़ाम है। सब कुछ यहीं लिख दूंगा तो आप पढ़ेंगे क्या? मैं तो इतना बता सकता हूँ कि किताब बहुत ख़ूबसूरत है। एक बार पढ़ लेंगे, तो घर में सजा-सजा के रखेंगे भी, और हर आते-जाते को पकड़-पकड़ के पढ़ाएंगे भी। अगर आप भी मेरी तरह पंजाबी हैं और पंजाबी साहित्य से अब तक आपका कोई वास्ता नहीं पड़ा है, तो यह शुरू करने के लिए एक अच्छी जगह है। लेखक की हर शै को बेहद गौर से देखने वाली आँखों से गुज़रे एक वक़्त का दीदार कर लो। उनकी इस आदत का भी छोटा सा तज़किरा मैंने किताब में ढूंढ लिया-

“मैं अपना उल्लू जेहा मुंह बनाई होरां दे चेहरे पढ़दा रेहा। साह्मनी सीट ते गोरा चिट्टा, बड़ी खुरच के शेव कीती, बंदा बैठा…”

आख़िर में एक शुक्रिया डा. परमजीत सिंह मीशा को भी, जिन्होंने शाहमुखी से गुरमुखी लिपियांतर के काम को कामिल तौर निभाया और पाठकों को पेश किया। फिर भी अगर कहीं किसी को इस किताब का शाहमुखी संस्करण मिल जाए तो ज़रूर मुझे ला दे, मैं उसे तेरह रोज़ की चाय पिलाऊंगा। गुरुमुखी पढ़ने वाले इस किताब को अमेज़न से ख़रीद सकते हैं। 175 रूपए की यह किताब अमृतसर के सच्चल प्रकाशन से छपी है। मैंने तो अपने दोस्त से उधारी ले के पढ़ी है।

अब जाता-जाता एक आख़री बात कहता चलूं-

“कमीज़ पतलून विच किसे नूं की पता हिंदू के मुसलमान।”

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सहज अज़ीज़
नज़्मों, अफ़सानों, फ़िल्मों में सच को तलाशता बशर। कला से मुहब्बत करने वाला एक छोटा सा कलाकार।

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