ज़माने की धूप से जूझकर
मैं तुम्हारी छाया में आ बैठती हूँ
जहाँ मेरे सारे आवरण मिट जाते हैं
सहज ही, स्वतः ही
और तुम अपनी निःस्वार्थ, निश्चल हवा से
मेरा तन मन सहलाते हो

अपने फूलों को शाखों से गिरकर
मेरा शृंगार करते हो
अनंत दुख और पीड़ा को
परत दर परत हटाते हो, हारसिंगार से तुम… मेरा जीवन महकाते हो
हारसिंगार से तुम।

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