कोई भी सबके हक़ के बाबत
कैसे बोल सकता है?
जंगलों के हक़ माँगने वाले स्वतः भूल जाते हैं―
ईमारतों के हक़,
रोज़गार और मौक़ों की ख़ातिर
अपने शहरों से विस्थापित नौजवानों के हक़,
उस औरत के हक़ जो गर्भवती होते हुए भी ढोती है सीमेंट की बोरियाँ,
उस मज़दूर के हक़ जो वेल्डिंग करते हुए गुनगुना रहा है प्रेमगीत।
औरतों के हक़ के लिए लड़ते लोग
भूलने लगते हैं
आदम के हक़।
जो नहीं बहने देते आँसू
उनकी आँखें महरूम रहती हैं नमक से
अपने असल हक़ से
मकानों से धुँआ उठता देखते ही
आग बुझाने को दौड़ते लोग
बढ़ा देते हैं पानी का कद
छीन लेते हैं आग का हुनर,
आग का हक़।
मन्दिर-ओ-मस्जिद में
सजदों के तलबगार ही
छीन लेते हैं
रज़िया के अब्बी से रावण का बुत बनाने का हक़,
रज़िया से पटाखे छुड़ाने का हक़।
इस्त्री करने वाले लोग
छीन लेते हैं
सिलवटों का हक़।
बन्दूक और कारतूस को अलग-अलग रखने वाले
छीन लेते हैं, उनसे
एकसाथ रहने का हक़।
किसके हक़ की बात की जाए?
किसके हक़ नहीं मारे जा रहे?