Hindi Mukri – An Introduction
नहीं नहीं, हिन्दी अपने किसी वादे से नहीं मुकरी है, यह तो एक हिन्दी विधा (form) है जो मुकरे हुए लोगों का सैंकड़ों साल बाद भी इंतज़ार कर रही है कि कब वो मुड़कर उसकी तरफ दोबारा देखने लगेंगे। मुझे कोई अंदाज़ा नहीं कि कितने लोग इस विधा के बारे में जानते हैं लेकिन प्रीफिक्स में हिन्दी लगाकर भी ‘मुकरी’ गूगल किया तो भी चौथे-पाँचवे पेज पर ही बयानों से मुकरने की बातें होने लगीं। समझ में आ गया कि जानकारी नहीं है और यह भी कि क्यों नहीं है। सो, इसके बारे में कुछ बताने से पहले चलिए एक मुकरी पढ़ ली जाए-
“सीटी देकर पास बुलावै।
रुपया ले तो निकट बिठावै।
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि रेल।”
‘मुकरी’, जिसे ‘कह-मुकरी’ भी कहते हैं, चार पंक्तियों की एक पहेली है जो एक लड़की अपनी किसी दोस्त से बूझती है। वो लड़की अपने प्रीतम यानि लवर को याद करते हुए तीन पंक्तियाँ कहती है और जब चौथी पंक्ति में उसकी दोस्त पूछती है कि क्या तुम अपने साजन की बात कर रही हो तो लड़की झट मुकर जाती है और किसी अन्य चीज़ का नाम ले लेती है, लेकिन एक ऐसी चीज़ का नाम जो पहली तीन पंक्तियों में उसके द्वारा किए गए उसके साजन के वर्णन से मिलती हो..।
जैसे ऊपर दी गयी मुकरी में पहली तीन पंक्तियाँ पढ़कर कोई भी सोचेगा कि एक प्रेमिका अपने प्रेमी को याद कर रही है, लेकिन जब चौथी पंक्ति में ‘रेल’ कहा जाता है और ऊपर की तीन पंक्तियाँ दोबारा पढ़ी जाती हैं तो अपनी अक्ल पर हँसी आती है और पहेली बूझने वाले की चतुराई पर थोड़ा मीठा गुस्सा। एक तरफ ठिठोली है तो दूसरी तरफ ही मस्तिष्क-मंथन भी।
इस चार पदों के लोक-काव्य का नाम मुकरी होने के पीछे का कारण लड़की या प्रेमिका का यूँ शरारत से मुकर जाना ही है।
अमीर खुसरो
मुकरी की शुरुआत हिन्दी में अमीर खुसरो ने की थी। इस लोक-काव्य को साहित्य विधा बनाने के पीछे उन्हीं का हाथ है। अमीर खुसरो की कुछ मज़ेदार मुकरियाँ देखिए-
लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा!
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन? ना सखि तारा!
नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
ऐ सखि साजन? ना सखि जूता!
वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल!
भारतेन्दु हरिश्चंद्र
खुसरो के बाद तकरीबन 600 साल बीतने के बाद भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने बेहद उम्दा मुकरियाँ लिखकर इस विधा को फिर से प्रचलित किया। उनकी मुकरियों की ख़ास बात यह भी थी कि उन्होंने इसे केवल रोचक पहेलियों का रूप न देकर अपने व्यंग्य का साधन बनाया और चार पंक्तियों में वो बातें सहज रूप से कह गए जिसको ब्रिटिश-राज के उस समय में प्रत्यक्ष रूप से कहना अवश्य ही आसान नहीं रहा होगा। उदाहरण देखिए-
सब गुरुजन को बुरो बतावै।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै।
भीतर तत्व न झूठी तेजी।
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी।
तीन बुलाए तेरह आवैं।
निज निज बिपता रोइ सुनावैं।
आँखौ फूटे भरा न पेट।
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट।
रूप दिखावत सरबस लूटै।
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै।
कपट कटारी जिय मैं हुलिस।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि पुलिस।
भीतर भीतर सब रस चूसै।
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै।
जाहिर बातन मैं अति तेज।
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज।
व्यंग्य के अलावा ईश्वर चंद्र विद्यासागर के सुन्दर लेखन और विधवाओं के लिए किए गए उनके समाज-सुधार के कार्यों की प्रशंसा भी भारतेन्दु कुछ यूँ करते हैं-
सुंदर बानी कहि समुझावै।
बिधवागन सों नेह बढ़ावै।
दयानिधान परम गुन-आगर।
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर।
और शराब के अवगुणों की निंदा यूँ-
मुँह जब लागै तब नहिं छूटै।
जाति मान धन सब कुछ लूटै।
पागल करि मोहिं करे खराब।
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब।
आधुनिक साहित्य में
आज भी यदा-कदा यह विधा देखने और पढ़ने को मिल जाती है लेकिन केवल ढूँढने पर। कुछ दिनों पहले आगरा की एक उत्कृष्ट लेखिका अंकिता कुलश्रेष्ठ से परिचय हुआ और उनके द्वारा लिखी गयीं कुछ मुकरियाँ पढ़ने का मौका मिला। मुझे बहुत सुन्दर लगीं, आप भी लुत्फ़ उठा सकते हैं-
सब दिन पीछे पीछे डोले
कभि कुछ मांगे कभि कुछ बोले
डांटूं तो रो जावे नाहक
ए सखी साजन? ना सखी बालक।
तन से मेरे चुनर उड़ावे
मेरे बालों को सहलावे
इसका छूना लगता चोखा
ए सखी साजन? ना सखी झौंका।
इसके बिन अब चैन न पाऊं
इसको खो दूं तो रो जाऊं
हर पल साथ में सहता कौन
ए सखी साजन? ना सखी फोन।
गुन गुन कर के गीत सुनावै
सारी रैना मुझे जगावै
देह पे लिखता रक्तिम अक्षर
ए सखी साजन? ना सखी मक्छर।
इतनी खूबसूरत विधा का इतिहास में खो जाना हमारे समय की दुखद विडंबना है। आप इसकी तरफ ज़रा भी आकर्षित हुए हों तो एक-दो मुकरियाँ तो अपने ऑफिस, घर या दुकान पर किसी को पकड़कर सुना ही दीजिएगा। मैं भी प्रयत्न करूंगा कि इस लड़ी में कुछ कड़ियाँ जोड़ पाऊँ।
यह भी पढ़ें: ‘नये ज़माने की मुकरी’ – भारतेन्दु हरिश्चंद्र