‘Hisaab’, a poem by Sunita Daga

सच कहूँ तो
सब कुछ तुमसे ही था
ऐसा नहीं कहूँगी मैं
सिमटा था मेरा संसार तुम्हीं में
ऐसा भी कैसे कह दूँ

क़दमों के नीचे के रास्ते
पहले से ही तय थे अकेले
समानांतर रेखा की तरह
अपने अलग अस्तित्व को चिन्हते

आदतन धकेलते हुए
जीवन का एक-एक दिन
और रूखी-बेजान रातों की
मुट्ठी से फिसलते हुए पल
झुलसाते रहे भीतर की
बची-खुची हरियाली भी

अभावों के जोड़-घट का
गणित सुलझाते हुए
नहीं किया हिसाब कि
क्या हिस्से में आया और
क्या था जो हमने गँवाया

पर छूटते जाते हर पल के साथ
तुम्हारी विदा के क्षण
आँखों की ओट से यूँ बहते रहेंगे अविरत
यह भी तो सोचा नहीं था

किसी और जन्म में ही
सुलझाना होगा इस गुत्थी को
इस जन्म की पीड़ा और शिकायतों को
रेहन पर रखकर
कर पाएँ शायद हम
अगले जन्म में
यह हिसाब चुकता!

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