‘Hothon Ke Neele Phool’, a story by Priyamvad

बूबा के होंठ बिलकुल लाल थे और बूबा को मौत बहुत अच्छी लगती थी। बूबा हमेशा बहुत धीरे-धीरे मरना चाहती थी। जाड़े की कुनमुनी धूप जैसे पूरे बदन पर रेंगती है, बिलकुल उसी तरह बूबा मौत को छूना चाहती थी।

“तुम मेरा गला दबा सकते हो?” बूबा मुस्कराकर पूछती।

“दबा सकता हूँ।” मैं अपनी हथेली में बूबा की सफेद नर्म गर्दन दबा लेता। बूबा चुपचाप दीवार से सिर टेके आंखें बन्द किये बैठी रहती। मेरी उंगलियों का कसाव बढ़ता जाता, लेकिन बूबा के चेहरे पर कोई सिकुड़न नहीं आती। बूबा के गले की नसें उभरने लगतीं और बूबा के गले का वह हिस्सा नीला पड़ जाता। मैं अपना हाथ हटा लेता और बूबा के गले का वह नीला हिस्सा चूम लेता।

“तुम मेरी माँ हो बूबा।” मैं फुसफुसाया।

और फिर बूबा मेरा सिर अपने सीने में दुबका लेती। “डरपोक!” बूबा हँस देती और मेरी गर्दन पर उसके दांत धंस जाते।

बहुत पहले एक तपती दोपहर में एक पतंग के पीछे भागता हुआ मैं बूबा के घर में घुस आया और बूबा ने मुझे रोक लिया। मेरे हाथों में चप्पल, धूल से सना चेहरा, पसीने और मिट्टी में डूबा पूरा बदन।

“कौन हो तुम?” बूबा ने मेरा हाथ पकड़ लिया था।

“वो पतंग…” मैं बिलकुल सन्न रह गया था तब बूबा को देख कर। कहानी-किस्सों के पन्नों से फड़फड़ाती जैसे कोई राजकुमारी निकल आयी है। गोरा मुंह, लाल होंठ और लम्बे बाल। हँसती तो फूल झरते हैं। रोती है तो मोती। आंखें उदासी से कढ़ी हुई।

“इतने गन्दे-सन्दे घूमते हो, माँ नहीं डांटती?”

“माँ नहीं है।”

“इतने छोटे हो और माँ नहीं है!” बूबा की आवाज भीग गई थी और बूबा ने मुझे अपने बिलकुल पास खींच लिया था।

“तुम रोज आओगे मेरे पास?”

“क्यों?”

“क्योंकि तुम्हारी आंखें बहुत अच्छी हैं, बिलकुल सैटेनिक ब्राऊन।”

“तुम बिलकुल राजकुमारी लगती हो।” मेरा डर खत्म हो गया था।

“ओ बाबा” बूबा खिलखिला कर हँस पड़ी थी।

“तुम क्या किसी का खून पीती हो?”

“ओ माँ” बूबा हँसते-हँसते गिर पड़ी थी।

“मेरा नौकर कहता है, जो किसी का खून पीता है उसके होंठ बिलकुल लाल हो जाते हैं, तुम्हारी तरह।”

बूबा फिर मेरा हाथ पकड़कर खींचती हुई अन्दर ले गई थी। मेरे हाथ-पैर धोकर उसने मुझे न जाने क्या-क्या खिलाया। सीने से लगाये न जाने कितनी देर दुलराती रही और मैं उस तपती दोपहर में अपने अकेले बचपन को हथेली में बन्द किये धीरे-धीरे पिघल कर बूबा के अन्दर सिमट गया था।

उसके बाद मैं रोज आता रहा। शाम होती और मैं भागता हुआ बूबा के घर पहुंच जाता। बूबा तभी नौकरी से वापस आती हाँफती हुई। बाबा की दवा के पैसे बचाने के लिये एक दो मील पैदल चल कर आती वह। बूबा अपना काम करती रहती और मैं कमरे की दहलीज पर चुपचाप बैठा बूबा को देखा करता। बूबा खाना बनाती, कपड़े धोती, बिस्तर लगाती, बाबा को खिलाती, दवा देती और फिर सुलाती भी। न जाने कितनी देर हो जाती। कभी-कभी मैं ऊंघने लगता। चौंकता तब जब बूबा हिलाती।

“सो गया क्या?” बूबा वहीं बैठ जाती!

मैं जाग जाता। “इतनी देर कर देती हो, कल से नहीं आऊंगा।”

“नहीं बाबा।” बूबा मेरा चेहरा अपने हाथों में भरकर अपने लाल होंठ मेरे माथे पर रख देती, कल से देर नहीं करुंगी बस।” और फिर मेरा सिर खींचकर अपनी गोद में रख लेती। थोड़ी देर में बूबा की उंगलियां मेरे बालों में, गले में, सीने पर एक बेचैनी के साथ घूमने लगतीं। साथ ही साथ बूबा हमेशा, चुपचाप कोई किताब भी पढ़ती रहती। अक्सर खलील जिब्रान की कविता – ‘दि ब्यूटी ऑफ डेथ’।

मेरे गाल पर जब कोई बूंद गिरती तब मैं चौंकता।

“तुम रो रही हो बूबा?” मैं उठ बैठता। बूबा अपने आंसू पौंछ लेती।

“ऐसा क्यों होता है? सुख आदमी को छूता हुआ क्यों निकल जाता है? उसे अपने में समेट कर जम क्यों नहीं जाता, बर्फ की सिल्ली की तरह।”

मैं कुछ नहीं समझ पाता। बूबा को टुकुर-टुकुर देखा करता। बूबा फिर मुझे अपने सीने में दुबकाकर बड़बड़ाते हुए वहशियों की तरह चूमने लगती, “सुख केवल कोई क्षण होता है रे। मेरा वह क्षण तू है?” मेरा दम घुटने लगता और मैं फिर उसी तरह पूरे का पूरा पिघलने लग जाता।

“तुम मेरी माँ हो बूबा।”

“हाँ मैं तेरी माँ हूँ! ” बूबा फफक कर रो पड़ती। मैं वैसे ही बूबा के सीने पर सिर रखे लेटा रहता और मेरा चेहरा बूबा के आंसुओं से भीगता रहता।

और तब मैं सोचा करता अपने नौकर की बात। वह राजकुमारी जितना रोती थी उतने ही उसके बाल लम्बे होते जाते थे। बूबा के बाल इसलिये लम्बे हैं, क्योंकि बूबा हमेशा रोती है।

जमीन का वह टुकड़ा बिलकुल लाल हो जाता था। गुलमोहर सारी रात बरसते और उसकी पंखुरी-पंखुरी से जैसे वह टुकड़ा खून से भीग जाता, बिलकुल बूबा के होंठों की तरह।

जमीन के उसी सुर्ख टुकड़े के ऊपर हम बड़े होते रहे थे। मैं, बूबा, मेरे अन्दर का आदमी और बूबा के अन्दर की औरत।

“जानते हो, मुझे और तुमको किस चीज ने जोड़ा है?” बूबा पूछती।

“नहीं।”

“अपने होने के बेमानीपन ने। अपने अस्तित्व की निरर्थकता ने।” न जाने तब कितनी रात बीत चुकी होती। बूबा हमेशा तब ऐसी ही बातें करती।

“हम दोनों एक दूसरे के कन्धों पर सिर रखकर रोते हैं रे। एक दूसरे के अकेलेपन को चुपचाप कुतरते हुए। यही वह जमीन है, जिस पर हम दोनों मिलते हैं।”

मैं बूबा का हाथ अपने हाथों में ले लेता। बिलकुल सूखी झुर्रियों वाला हाथ। बूबा के पूरे बदन से उसका हाथ बिलकुल अलग था। जैसे किसी बूढ़ी औरत की हथेली काटकर बूबा के हाथों में जोड़ दी गयी है।

“तुम्हारा हाथ ऐसा क्यों है?” मैं बूबा के हाथ की उभरी नीली नसों पर उंगली फेरता रहता।

“हाथ हमेशा दिल की तरह होता है।” बूबा हँस पड़ती, “तूने कभी ऋग्वेद का गीत सुना है?” बूबा मुझे अपने पास खींच लेती।

“कौन सा?”

“यम और यमी का गीत?”

“नहीं!”

“जानता है तू, यम और यमी भाई-बहन थे। एक दिन यमी ने यम से पूछा, तू मेरा कौन है? भाई, यम बोला। तेरा धर्म क्या है? यमी ने पूछा। तुझे सुख देना, यम बोला। मुझे रति सुख दे, यमी ने याचना की।”

“बूबा।” मेरा हाथ कांप गया।

“डरपोक!” खिलखिला कर हँस पड़ी बूबा, “देहातीत होकर सोच एक बार यमी की इस बात को। फिर जीवन दर्शन बना ले, अपने जीवन के सारे मूल्यों का आधार।”

“बूबा।”

“हाँ रे, यमी की इस बात से अचानक उसका जीवन कितना बड़ा हो गया है। कितना उनमुक्त, व्यापक और स्पष्ट! ऐसा नहीं है क्या? यह दृष्टान्त तो स्वयं में एक दर्शन है। यमी की दृष्टि कितनी निर्भीक और विस्तृत है। जीवन के छोटे-छोटे टुकड़ों में उत्तीर्ण। तुझको इसलिये बता रही हूँ कि केवल तुझसे ही तो बोल पाती हूँ। फिर तुझे तो अभी बहुत बड़ा होना है। सत्य का अन्वेषी, तटस्थ दृष्टि अभी से सीख ले!”

“लेकिन पाप! ”

“धत्। अगर पाप और पुण्य सत्य हैं तो सुख कुछ भी नहीं होता रे! और अगर सुख सत्य है तो पाप-पुण्य का कोई अस्तित्व नहीं है। सुख की नित्यता तो हम निश्चित ही जानते हैं, इसलिये पाप-पुण्य कुछ नहीं है।”

“तो यमी की स्थिति।”

“हाँ, यमी की स्थिति मान्य है। यमी के जीवन की स्पष्टता मेरा आदर्श है।”

“और रिश्तों का धर्म?”

“रिश्तों के नाम जीवन को बहुत छोटे-छोटे घेरों में बांध देते हैं। आंखों में कपड़ा बांधे बैल की तरह आदमी उन्हीं घेरों में घूमता रहता है। यह गलत है। एक बार में आदमी क्या सब रिश्ते नहीं भोग सकता? क्या मेरे और तेरे रिश्ते का कोई नाम है? क्या मैं तेरी सब कुछ नहीं हूँ? माँ, दोस्त, बहन बोल?”

“हाँ, बूबा।” मैं बूबा की हथेली की नीली नसें चूम लेता। “तुम मेरी इकलौती आस्था हो, मेरी रक्षिता हो, मेरी कल्याणी।” मेरी आवाज कांपने लगती। बूबा मेरी निगाहों में तब न जाने कितनी ऊपर उठ जाती। ज्ञानी, गंभीर, ममत्वमयी बूबा।

“आ चलें।” बूबा उठ जाती।

गुलमोहर की सुर्ख पंखुरियां बूबा के बालो में उलझी होतीं।

“एक बात पूछूं बूबा?” मैं ठहर जाता। “फिर यम ने क्या किया?”

“उसका कोई महत्व नहीं है रे। देह का अस्तित्व तो कुछ क्षणों का होता है बस।”

“अच्छा बूबा, तुम जो कुछ कहती हो, क्या सचमुच उतना उनमुक्त होकर कर सकती हो?”

“शायद” बूबा हँस देती, “अपनी बूबा को समझा नहीं क्या?”

“समझा तो बिलकुल नहीं। रोज नई बूबा को देखता हूँ न!”

बूबा खिलखिला पड़ती, “यू सेटेनिक ब्राउन?” और फिर मेरी गर्दन में बूबा के दांत धंस जाते।

कभी-कभी मैं सोचता कि बूबा इतनी चुप क्यों रहती है, क्यों ऐसी बातें करती है, तो मुझे समझ में नहीं आता। एक दिन बूबा ने मुझे बताया था, “मेरी पूरी देह मुर्दा ख्वाबों से गुंथी है रे, और जब कभी उन ख्वाबों में से कोई ख्वाब करवट लेता है तो मैं बिलकुल चुप हो जाती हूँ। कहीं वह ख्वाब जाग न जाये!”

बूबा रो पड़ी थी फिर, और तब मुझे बूबा के पूरे बदन पर मरे हुए सपने फैले दिखाई पड़े थे। मुझे लगा था कि बूबा की देह का कोना-कोना हर वक्त कोई न कोई लड़ाई लड़ता रहता है और उन्हीं मरे हुए सपनों के बीच, कोने-कोने की लड़ाई के बीच मेरी बूबा बड़ी होती रही है। उसके बाद मैंने कभी कुछ नहीं पूछा। मैं जानता था। बूबा किसी जमीन का कोई ऐसा टुकड़ा चाहती है, जिस पर बूबा अपने पांव रख सके। थकी हुई हाँफती बूबा अब और नहीं लड़ना चाहती और इसलिये जमीन का वह टुकड़ा कभी यमी की स्थिति होती, कभी खलील जिब्रान की ‘दि ब्यूटी ऑफ डेथ’ और कभी मैं।

बूबा उस रात सर्दी से कांप रही थी।

“अन्दर चलें?” मैंने कहा।

“नहीं” बूबा ने अपना शॉल और कसकर लपेट लिया। बेहद थकी लग रही थी बूबा। न जाने उंगली से क्या-क्या खींचती रही फर्श पर। मैं चुपचाप बैठा देख रहा था। मैं जानता था यही वह क्षण है जब अपने अस्तित्व की निरर्थकता के बोझ से बूबा का दम घुटने लगता है और बूबा सिर्फ मरना चाहती है। बिलकुल धीरे-धीरे। मैं सोच रहा था कि बूबा मुझसे पूछेगी कि क्या मैं उसका गला दबा सकता हूँ और मैं बूबा के गले पर अपना हाथ धर दूँगा।

“सुनो..” बूबा बहुत देर बाद बोली। बूबा की आवाज बहुत धीमी थी, “मैं महसूस करना चाहती हूँ कि मैं हूँ।” बूबा सीधे मेरी आंखों में देख रही थी।

“बूबा!” मैंने बूबा के चेहरे पर ऐसा तनाव और थकान कभी नहीं देखी थी। बूबा का चेहरा इस सर्दी में भी भीग रहा था। बूबा के साथ हमेशा से चलता हुआ मीलों लम्बा अकेलापन और सन्नाटा भरती हुई शाम की ललछौंही, कुछ ऐसा ही बूबा के चेहरे पर फैला था।

“मैं अपने होने को पूरा, पर जीना चाहती हूँ।”

“मैं समझा नहीं बूबा।”

“तू मेरे लिये क्या कर सकता है?”

“कुछ भी।”

“कुछ भी? सत्य-असत्य से परे, सुख-दु:ख के बिना?”

“हाँ बूबा।”

“मुझे चूमो।” बूबा ने मेरा हाथ पकड़ लिया। बूबा की हथेली भीग रही थी। बूबा की आंखें धीरे-धीरे बलने लगी थीं।

“बूबा।” मैं डर रहा था बूबा की सूरत से। उदासी से कढ़ी बूबा की आंखें सिर्फ एक औरत की आंखें रह गई थीं।

एक ऐसी औरत जो हमेशा से बूबा के अन्दर थी, बूबा के साथ बड़ी होती रही, लेकिन बूबा ने उसे कभी अपने से बाहर झांकने नहीं दिया। वह औरत धीरे-धीरे बूबा के जिस्म की एक-एक नस में फैल गयी थी और आज वही औरत जब बाहर निकलना चाह रही थी तो बूबा की एक-एक पर्त एक-एक नस चटक रही थी।

मैं उठा और धीरे से मैंने बूबा का गला चूम लिया। बिलकुल वही हिस्सा जो मेरे दबाने से नीला पड़ जाता था।

“मेरे होंठ।” बूबा फुसफुसायी। बूबा ने अपनी आंखें बन्द कर लीं। मैंने झुककर बूबा के होंठ चूम लिये। सुर्ख लाल होंठ। एक घूंट भरा हो जैसे मैंने खून का।

“और” बूबा की बेचैन उंगलियां मेरी गरदन मेरे सीने पर रेंग रही थीं।

“और”

“बूबा।” मैं हाँफने लगा। मेरे चेहरे पर पसीना छलछला आया। मेरा बदन कांप रहा था। मुझे लग रहा था कि मैं अपने आप से छिटक कर अलग हो गया हूँ और सिर्फ एक आदमी मेरे अन्दर शेष रह गया है।

बहुत पहले मैंने पूछा था बूबा से कि यम ने क्या किया बूबा ने कहा था, उसका कोई महत्व नहीं है। महत्व है जीवनदृष्टि का, मूल्यों का और मैंने फिर पूछा था बूबा से कि मूल्यों के लिये तुम जिस तरह से सोचती हो, उतना मुक्त होकर उनको जी सकती हो?

“शायद” बूबा ने कहा था। मेरी वही बूबा, मेरी इकलौती आस्था मेरे सामने बैठी थी। यमी की जीवन दृष्टि को आदर्श मानने वाली, शाश्वत सत्य की अन्वेषिका, पाप-पुण्य के अनास्तित्व और रिश्तों के धर्म की अध्येत्री, मेरी रक्षिता – मेरी कल्याणी, मेरी माँ।

“मुझे सुख दे रे मुझे विस्तार दे।” बूबा ने खींच लिया।

“बूबा” मैं कुछ कहना चाहता था। लेकिन अचानक ही बूबा की आंखों में, होंठों पर, सैकड़ों मरे सपने करवट बदलने लगे। बूबा की हाँफती सांसों को किसी ज़मीन का एक टुकड़ा चाहिये था, जिस पर रुककर बूबा कुछ गहरी सांसें ले सके। मैं सिर्फ बुदबुदा कर रह गया। और मैं, सिर्फ एक आदमी, बूबा के, सिर्फ एक औरत के सीने पर हाँफता हुआ गिर पड़ा।

सुबह जब मैं गया तो बहुत सन्नाटा था। बाबा कमरे में सो रहे थे। कमरे की दहलीज पर धूप का एक टुकड़ा रेंग रहा था। बूबा कहीं नहीं दिखी। मैं वहीं एक कोने में बैठ गया। कुछ देर में बूबा बाथरूम से निकली। वही पुरानी उदासी से कढ़ी आंखें। सूजी हुईं। सारी रात रोई थी शायद बूबा। होंठ भी कुछ छिले हुए और सूज रहे थे। मुझे देखते ही बूबा चौंक गयी। मेरी आंखें झुक गयीं।

“तू आ गया रे!” देख तो मेरे होंठ कैसे नीले हो गये हैं! बिलकुल जहर में डूबे। सारी रात तो धोया है मैंने इन्हें, लेकिन यह रंग छूटता ही नहीं।” बड़बड़ाती हुई बूबा फिर नल पर चली गयी।

मैं फूट-फूट कर रो पड़ा।

“ओ अनामा, अदृष्टा मंत्रकर्ता, तुम्हारी कथा अधूरी थी। आगे क्या हुआ, यह मैं बताता हूँ। शाश्वत सत्य की अन्वेषिका यमी देह सत्य को अपने जीवन के स्तर पर जी नहीं पायी और उसके होंठ नीले पड़ गये। मेरी बूबा की तरह जहर में डूबे दो नीले फूलों जैसे होंठ।”

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