हमें डूबना ही था
और हम डूब गए
हमें मरना ही था
और हम मारे गए
हम लड़ रहे थे
कई स्तरों पर लड़ रहे थे
हमने निर्वासन का दंश झेला
हमें लगा
हम जी लेंगें
लेकिन हम ग़लत थे
हम भूल गए थे कि
हमने समाज की पूँछ पर लात रख दी है
समाज शिकारी कुत्ते की तरह हमारे पीछे था
उसकी नाक बहुत तेज़ थी
उसने सूँघ लिया था
हमारी धमनियों में बहते ख़ून को
उसके कान खड़े थे
उसने सुन लिया था
हमारी नींद में चलते चलचित्र को
यक़ीन मानिए
हमें कुछ नहीं सूझ रहा था
न गाँव, न घर, न परिचित, न देश
हम भाग रहे थे
हमारे सपनों के साथ
हम जीना चाहते थे
पीढ़ियों के बने-बनाए व्याकरण से बाहर
जहाँ हम उनकी भाषा का विलोम रच पाते
लेकिन बग़ैर कुछ रचे
बग़ैर चुकाए अपनी-अपनी नींदों का क़र्ज़
हम मारे गए।
गौरव भारती की कविता 'अलविदा'