‘आदमी की निगाह में औरत’ से

काफ़्का की एक लम्बी और भयानक कहानी है, ‘दंडद्वीप’। मुख्य-भूमि से दूर इस द्वीप में क़ैदियों को रखा जाता है, अपराध के अनुसार सज़ाएँ दी जाती हैं और यह तय है कि समाज में उनकी वापसी की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो गई हैं। यहाँ के अधिकारियों ने सज़ाएँ और यातनाएँ देने के तरह-तरह के तरीक़े और तामझाम बना रखे हैं। अपनी जिस ईजाद पर इन्हें सबसे ज़्यादा गर्व है और जिसे विशेष रूप से कथा-नायक को दिखाया जाता है, वह बहुत कौशल से तैयार की गई गशीन है। एक टिखटी या बिना ढक्कन के लम्बे-पतले सन्दूक़ जैसी चीज़ में अपराधी को चित लिटा दिया जाता है और ऊपर से पट्टे कस दिए जाते हैं ताकि वह हिल-डुल न सके। इस सबको ‘मानवीय’ और कम तकलीफ़देह बनाने के लिए इधर-उधर गद्दे जैसी चीज़ें भी लगायी गई हैं। इस तरह अपराधी को कस चुकने के बाद ऊपर से नुकीले बरमे जैसी चीज़ उसकी छाती पर किए गए अपराध का नाम गोदते हुए धीरे-धीरे गहरे धँसती चलती है। गोदने की प्रक्रिया में ख़ून-माँस को साफ़ करने के लिए बरमे के साथ ही पानी की एक नलकी भी जुड़ी है जो इस ‘गन्दगी’ को धोती रहती है। इस प्रकार बरमे के शरीर के आर-पार निकलने तक मरते हुए अपराधी को मालूम होता रहता है कि उसे किस बात की सज़ा दी जा रही है—हत्या, चोरी, बलात्कार या कोई ऐसे ही अन्य समाज-विरोधी कार्य।

यह लम्बी कहानी का बीज-कथ्य है। कहानी आगे भी चलती है कि किस तरह इस मशीन का आविष्कर्त्ता या संचालक ही इसे तोड़ डालता है। ऊपर से देखने में यह कहानी एक विकारग्रस्त, सैडिस्ट लेखक द्वारा यातना-प्रक्रिया के विस्तार और ‘रसमय’ विवरणों की दहला देनेवाली रचना है। मगर काफ़्का गहरा लेखक है और यहाँ समाज की उस नृशंस बनावट को उधेड़ रहा है जो पहले आदमी को अपराधी बनाती है, फिर उसकी आत्मा में इस अपराध-बोध को इस तरह गोदती रहती है कि वह मरते दम तक तड़पता रहे—आदमी इससे छूट नहीं सकता।

भारतीय हिन्दू समाज में आत्मा पर खुदे इस ठप्पे का नाम है ‘जाति’—या वर्ण-व्यवस्था—तारीफ़ करनी होगी कि कितने कौशल से जाति का यह अहसास जन-जन के ख़ून में भर दिया गया है कि मौत से पहले आदमी को इससे निजात का रास्ता नहीं मिलता। पहले सारे समाज को काम के लिहाज़ से ऊँच-नीच में बाँटना, इस बँटवारे को कर्म और प्रारब्ध से जोड़ना, फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे स्थायित्व देना। इतना ही नहीं, हर ऊँचे को नीचे के लिए यातना-व्यवस्थापक का स्वनियुक्त अधिकार प्रदान करना। ‘नीच’ में किसी की विशिष्टता या उपलब्धि स्वीकार ही करनी पड़े तो उसकी वास्तविक हैसियत बताते हुए उदारता का प्रदर्शन कि ‘अमुक है तो अमुक जाति का, लेकिन क्या कमाल का काम किया है।’

हिन्दू-समाज में जाति कुछ वर्णों के लिए आत्मा पर लटका तमग़ा है तो कुछ के लिए ‘दागना’। मुक्त दोनों नहीं हैं—दोनों इस दागने और दागीने (अलंकार) के अहसास को ज़िन्दगी के हर आचार-व्यवहार में जीते हैं—कभी सचेत और कभी अनजाने—यह सही है कि अमरीकी नीग्रो की तरह भारतीय अवर्ण, दूर से नहीं दिखायी देते। आधुनिकता और औद्योगीकरण में वे आसानी से घुल-मिल जाते हैं। मगर पूछताछ तो हर जगह है और इसमें शायद ही कोई अपने को बचा पाता हो; फ़ौरन पकड़ा जाता है। धर्म के मध्यकालीन तत्त्ववादी उभार ने इस संस्कार को और भी गहराया है। हाँ, दूर से दिखायी देती है औरत—और उसके प्रति व्यवहार की अमानवीयता हम सबके सामने है।

मंडल जैसे राजनेताओं या सारे समाज-चिन्तकों ने औरत को क्यों पिछड़ों में शामिल किया है, इसे लेकर स्वयं सवर्ण महिलाओं में बहुत ग़ुस्सा है, क्योंकि वे पारिवारिक स्थिति को ही सामाजिक स्थिति मानने की ख़ुशफ़हमी में जीती हैं। ठीक वैसे ही जैसे कुछ पिछड़े, व्यक्तिगत हैसियत और उपलब्धि को बाक़ी अपने समाज से काटकर ख़ुश हो लेते हैं। इक्के-दुक्के ‘ऐतिहासिक उदाहरण’ और धार्मिक या शास्त्रीय चाशनी में पगी कुछ महिमामयी प्रशस्तियाँ महिलाओं और इन विशिष्ट पिछड़ों के समानता-भ्रम को जिलाए रखने के रामबाण टॉनिक हैं।

माना जा सकता है कि सामाजिक न्याय की इस प्रक्रिया से, यानी पिछड़ों के उभार से अगर सबसे अधिक कोई चीज़ प्रभावित होने जा रही है तो वह है इन सवर्ण महिलाओं के बच्चों और पतियों के ‘भविष्य’। आधी रोटी में पाँच और नए हिस्सेदार उठ खड़े हों, और वे भी स्थापित और स्वीकृत मानदंडों के हिसाब से ‘अनडिज़र्विंग’ (अयोग्य) हों तो बौखलाना भी समझ में आता है और ग़ुस्से से भन्नाना भी। हर माँ अपने बच्चों को लेकर चौकन्नी और आक्रामक होती है। हितों की इन सीमाओं के पार देख सकना उसके लिए सम्भव भी नहीं है।

पर यह सच है कि परिवार नारी की सुरक्षा भी है और उसके व्यक्तित्व की मृत्यु भी। नारी अस्मिता की चेतना और परिवार-व्यवस्था का न बदलता हुआ रूप ही क्या आज का सबसे बड़ा सामाजिक-द्वन्द्व नहीं है?

भारतीय समाज में न नारी का अपना कोई व्यक्तित्व रहा है, न जाति। यह ऐसा ‘रत्न’ है जिसे कहीं से भी उठाया जा सकता है और जिसके पास है, उसी की सम्पत्ति है। वे व्यक्ति नहीं, ‘चीज़’ हैं जिन्हें लूटा, छीना और नष्ट किया जा सकता है, ख़रीदा और बेचा जा सकता है। सारा इतिहास इन उदाहरणों से भरा है कि किस आक्रमण में कितने हाथी-घोड़े, हीरे-जवाहरात और औरतें लूटी गईं। जिस सामन्त या सम्राट के पास जितने अधिक दास और औरतें थीं, वह उतना ही बड़ा चक्रवर्ती माना गया। सन् 47 के देश विभाजन में भी कितनी औरतें छीन ली गईं—या लौटा दी गईं—यह बहुत पुराना इतिहास नहीं है। आज भी जब दुश्मन को नीचा दिखाना या सबक सिखाना हो तो उसकी बहन-बेटियाँ ही उठायी या भ्रष्ट की जाती हैं। दलितों का दम्भ तोड़ने के लिए उनकी औरतों पर बलात्कार तो सबसे अचूक नुस्ख़ा है। रक्त शुद्धता या ‘ब्लू-ब्लड’ वाली सामन्ती शेखियों के मुँह पर यह भी एक बड़ा तमाचा रहा है कि हर काल में हर जाति और धर्म की औरतें एक-दूसरे के यहाँ हस्तान्तरित हुई हैं और फिर भी वे इस मुग़ालते को पाले रखते थे कि नस्ल में माँ का तो कुछ होता ही नहीं, जो भी ख़ून बच्चे में होता है, वह सिर्फ़ बाप का होता है। मानो माँ एक जड़ डिब्बा है जहाँ बाप का वीर्य पलता है।

समाज-चिन्तकों ने औरतों और दलितों या अवर्णों को इसलिए एक ख़ाने में नहीं रखा है कि वे शारीरिक या आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं, या सदियों के सुनियोजित शोषण ने उनके दिमाग़ी और अन्य प्रतिभागत विकास अवरुद्ध कर दिए हैं। वे एक ही नाव के यात्री इसलिए हैं कि उनकी नियति एक है, वे अपने ‘होने’ के कारण ही दंड के पात्र हैं। जिस जाति-कुल या शरीर में उन्होंने जन्म लिया है, उनमें न उनका कोई बस है, न चुनाव। कोई बच्चा अपने लिए दलित या शुद्र माँ-बाप नहीं चुनता। औरत की स्थिति तो और भी नाज़ुक इसलिए है कि उसे अपने जीवन के हर क्षेत्र और हर स्थिति में उन्हीं अपराधों की सज़ा पानी है जिसकी ज़िम्मेदार वह क़तई नहीं है। जिस तरह उसने औरत होकर अगले हर क्षेत्र में भेदभाव की ज़िन्दगी नहीं चुनी थी, उसी तरह उसने अपने काले-गोरे या सुन्दर-असुन्दर होने का चुनाव भी नहीं किया था। विवाह से पहले गर्भ धारण कर लेना भी शायद उसका चुनाव नहीं था—न उसका चुनाव यह है कि विवाह के बाद भी वह गर्भ न धारण करे और बाँझ कहलाए। उसके बेटा हो या बेटी, क्या यह वह ख़ुद तय कर सकती है? या उसका पति नपुंसक या नाकारा हो, यह उसकी आकांक्षा पर है? पति या परिवार का कोई और सदस्य कहीं किसी बीमारी, दुर्घटना या हादसे में मर जाए, इसके लिए वह क्यों ज़िम्मेदार है? चार आदमी शुद्ध शारीरिक ज़बर्दस्ती से उसके साथ बलात्कार कर डालें तो वह दंडनीय, अस्वीकार्य, अस्पृश्य और अभागी है? मगर नहीं, उसे इन सारे ‘अपराधों’ की सज़ा मिलेगी यानी सामाजिक अपमान, व्यक्तिगत प्रताड़ना या मौत की सज़ा भोगनी होगी—और इससे अपने को ‘हम इन सबमें नहीं आतीं’ की घोषणा करने या दूसरे सवर्ण दम्भ में साँस लेनेवाली किसी जाति की कोई औरत मुक्त नहीं है। उसे सिर्फ़ उसी समय तक की मौहलत है जब तक कि इन अपराधों द्वारा ‘पकड़ी’ नहीं जाती। इसीलिए मैंने कहा कि पारिवारिक स्थिति की रियायत और तथाकथित सुरक्षा, या पूरी सामाजिक व्यवस्था में अपनी हैसियत न समझनेवाली ये अदूरदर्शी मध्यवर्गीय महिलाएँ जब सामाजिक अन्याय या ग़ैर-बराबरी के ख़िलाफ़ होनेवाले संघर्ष से अपने आपको अलग और ऊँचा मानकर ‘हिज मास्टर्स वायस’ के फ़तवे देती हैं तो हँसने और रोने को मन करता है।अंग्रेज़ों में भी ऐसा एक वर्ग था कि जिसके अस्तित्व और हित, मालिकों से इतने एकाकार हो गए थे कि ग़ुलाम होने का न उन्हें कोई अहसास था, न ज़रूरत। उस समय ‘हम हिन्दुस्तानी ग़ुलाम हैं’ कहना उन्हें भी उतना ही अपमानजनक लगता था जितना आज यह सुनना कि ‘वर्ण-व्यवस्था’ में ‘हर औरत शूद्र है’। (बकौल बाबा तुलसीदास)।

हम पुरुष हैं और हमें यह सूट करता है कि हम औरत के महान होने के दम्भ को सहलाते हुए उसे अपनी खींची लक्ष्मण-रेखाओं में ही बने रहने को फुसलाते रहें। और, यह व्यक्तिगत रूप से हम नहीं हैं, सदियों से दिए गए हमारे सामन्ती संस्कार हैं।

कितना विरोध किया था राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने हिन्दू कोड बिल का कि स्त्री को समान अधिकार नहीं मिलने चाहिए। आज भी देश के सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायमूर्ति श्री रंगनाथ मिश्र तक सोलहवीं सदी के इन सामन्ती संस्कारों से मुक्त नहीं हैं तो फिर औरों की तो बात क्या है? अनेक प्रबुद्ध महिला-संगठनों के कोप और प्रदर्शन-भाजन इन हज़रत ने किसी सार्वजनिक भाषण में फ़रमाया था कि महिलाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता या अपनी प्रतिभा की पहचान जैसी ओछी बातों में पुरुषों से होड़ लेकर अपनी गरिमा से नीचे नहीं उतरना चाहिए—नारी तो महान, दैवगुण सम्पन्न और ईश्वरीय शक्तियों की स्वामिनी है, उसे घर की चहारदीवारियों के भीतर ही अपने इस देव-दुर्लभ प्रकाश को फैलाना चाहिए—बाद में भले ही दबाव में आकर उन्होंने अपनी इस वेद-वाणी को वापस ले लिया हो, मगर उनकी यह सोच नई नहीं है। वरिष्ठ जज की हैसियत से आप पहले भी ये मुक्ता-मणि बिखेर चुके हैं (दृष्टव्य है : ए.आई.आर. 1986 एस.सी.ए. 250)। दहेज में जलाए जाने के मुक़दमे ‘राज्य, दिल्ली प्रशासन’ बनाम ‘लक्ष्मण कुमार’ में अपना फ़ैसला देते हुए आप ने स्त्रियों की इसी आत्मनिर्भर होने या आर्थिक रूप से स्वतन्त्र होने की प्रवृत्ति को लताड़ा और महान भारतीय संस्कृति का गुणगान किया था, शास्त्रों के उद्धरण देते हुए सिद्ध किया था कि नारी किस तरह ‘परा-शक्ति’ है। ‘शी हैज़ द ग्रेटर डोज़ ऑफ़ डिविनिटी इन हर, एंड बाई हर गिफ़्टेड क्यालिटीज़, शी कैन प्रोटेक्ट द सोसायटी अगेंस्ट ईविल’ यानी दहेज-लोभियों द्वारा अपने को जलाए जाने से एक निरीह बालिका बच नहीं पायी तो यह उसका ही अपराध है। अब है कोई गुंजाइश कि औरतें अत्याचार के ख़िलाफ़ किसी न्यायालय में गुहार कर सकें? बलात्कार हो या सती, पुरुष-व्यवस्था में अपने हर दुर्भाग्य की ज़िम्मेदार औरत ही है। तुलसी ने भी कहा है, ‘जिमि स्वतन्त्र होइ बिगरहिं नारी’।

[‘मेरी तेरी उसकी बात’, हंस, जनवरी 1991]
राजेन्द्र यादव का लेख 'होना/सोना एक ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ'

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राजेन्द्र यादव
राजेन्द्र यादव (जन्म: 28 अगस्त 1929 आगरा – मृत्यु: 28 अक्टूबर 2013 दिल्ली) हिन्दी के सुपरिचित लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक होने के साथ-साथ हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय संपादक भी थे। नयी कहानी के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया।