काफ़े रेस्त्राँ में हिलमिल कर बैठे। बातें
कीं; कुछ व्यंग्य-विनोद और कुछ नये टहोके
लहरों में लिए-दिए। अपनी-अपनी घातें
रहे ताकते। यों, भीतर-भीतर मन दो के
एक न हुए, समीप टिके, अपनापा खो के,
जीवन से अनजान रहे, पर गाना गाया
जन का, जीवन का, लेकिन दुनिया के हो के
दुनिया में न रहे। दुनिया को बुरा बताया।
उससे तन बैठे जिसने कुछ दोष दिखाया।
इस प्रकार से ढले नवीन इलाहाबादी
कवि साहित्यकार, जिनको भाती है छाया,
नहीं सुहाती आँखों को भू की आबादी।
जीवन जिस धरती का है। कविता भी उसकी
सूक्ष्म सत्य है, तप है, नहीं चाय की चुस्की।
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त्रिलोचन की कविता 'तुम्हें जब मैंने देखा'