खामोशी… गहन खामोशी… दोपहर चूम रही है सूखे गुलाब को.. बालकनी में बैठी लड़की उस सूखे गुलाब को निहार रही है… वो उसमें आत्मा भर देना चाहती है, पर वो अंदर से खाली महसूस कर रही है। उसे लगा वो उस गुलाब सी हो गयी है। उदास… दुःखी… तभी एक तितली आकर बैठ गयी उसके बगल में। वो अब उस खूबसूरत तितली को देखने लगी। उसके पँख पर कई निशान थे- एक, दो, तीन। वो गिनने लगी। उसे लगा जैसे, चितकबरा निशान लिये ये उसके ही दुःख हों।

और अचानक एक नदी फूट पड़ी, उसकी आँखों से। लड़की का आँसू गिर गया पास बैठी उस तितली के पँखो पर और तितली पँख फड़फड़ा कर उड़ गयी। उसने हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ना चाहा… क्या वो दुःख को पकड़ना चाह रही है? नहीं! नहीं! उसने झट से हाथ खींच लिया। वो अब दुःख को उड़ता देख रही है। तितली उस सूखे गुलाब पर बैठ गयी है और देर तक बैठी रही। जैसे वो उस गुलाब के पास बार-बार आती रही हो और वहाँ उसे कोई सुकून मिल रहा हो, जैसे उसे मिलता था दुःख के पास बार-बार वापस लौटने से।

उसने मन ही मन सोचा तितली को उड़ जाना चाहिये। वो भूख से मर जा सकती है अगर वह वहीं बैठी रही तो। लड़की की नज़र ,गोद में पड़ी किताब पर जाती है- एक अधखुला पन्ना कब से फड़फड़ा रहा है, पर लड़की की आँखों से गिरे आँसू किसी पेपरवेट की तरह उस पन्ने को पलट जाने से रोके हुए हैं। लड़की पन्ना अपने हाथों से पलट देती है- अगला शीर्षक – ‘सुख की तलाश में’…

लड़की कहानी पढ़ना शुरू कर देती है। उसने कहा था, तुम्हें सुख तलाशना चाहिये…

***

दिमाग में कौंधता ‘एक शब्द’ ला बैठाता है कुर्सी पर उसे और लिखता है वो एक लम्बी कहानी, लम्बी कविता…कोई ख्वाब… ‘एक बिंदी’ भर केंद्र पर कम्पास की नोक रखकर खींची जा सकती है परिधि… वृत्त उस छोटे केंद्र का विस्तार है!

-थोड़ा कुछ बदला है हमारे बीच…

-थोड़ा कुछ? वो जोर देकर बोली…

-अच्छा, थोड़े से थोड़ा ज्यादा, पर सब कुछ तो नहीं… यह सुनकर वो मुस्करा दी…

-देखो तुम्हारी मुस्कराहट बची हुई है। इस पर मैं नया संसार खड़ा कर सकता हूँ।

-यह ख्वाब है, बस!

-यह संसार किसी खूबसूरत ख्वाब से कम है क्या!

एक शब्द, लम्बे संवाद में बदला जा सकता है। वो जानता है यह रहस्य और उस लम्बे संवाद में चुन लेगा वो सर्दी में मरे जा रहे रिश्तों के लिये थोड़ी ऊष्मा।

-कुछ सुनाओ…

-सुनो…

बहुत कुछ ख़त्म होने पर भी
सब कुछ ख़त्म नहीं होता

जैसे किसी खण्डहर हुए मकां के गिर जाने पर
बची रहती है गीली मिट्टी
जहाँ उग आते हैं हरे पौधे, शैवाल, कुकुरमुत्ते
रहने आ जाते हैं नये छोटे-छोटे जीव
शुरू हो जाता है नया जीवन…

जब लगे रिश्ते खत्म हो गये सारे
उसी खण्डहर की तरह
तो तलाशना कहीं गीली मिट्टी
मन की ओट में वहाँ उग सकते हैं सम्भावना के पौधे
बिल्कुल हरे-हरे

रहने आ सकता है प्रेम
और फिर
शुरू हो सकता है जीवन,
नया नया सा…

वो उसकी मुट्ठी में कुछ रख देता है। वो खोल कर देखती है। खूबसूरत हरे रंग की स्याही में लिखा हुआ, इस कविता का शीर्षक-

‘सम्भावना की पौध’

आँसू गिरता है और हरे रंग में लिखा अक्षर फैल जाता है। सफ़ेद काग़ज़ हरा होने लगता है…

***

कभी कभी किसी की चुप्पी कितनी परेशान करती है ना! यह चुप्पी किसी पहाड़ सी होती है, जिसके बोझ से किसी का सीना दब सकता है और साँसे रुक सकती हैं। हम किसी को अपनी चुप्पी से जीते जी मार सकते हैं। और मैं मरने से ठीक पहले तुम्हें चूम लेना चाहता हूँ। तुम्हारे माथे को चूमने से ठीक पहले तुम्हारी सांसों की गर्मी मेरे गर्दन को छूती मेरी रूह तक पहुंच जाया करती है। वो मेरे सीने पर बने पहाड़ को पिघला देने भर के लिये काफी होती है। मेरे सीने का पिघलता पहाड़, तुम्हारी आँखों से बह जाया करता है। प्रेम इसीलिए दर्शन का विषय बना, विज्ञान ने घुटने टेक दिये…

शशशशश… तुमनें अपनी उँगली मेरे होठों पर रख दी…

बाहर गहन चुप्पी है, हम अंदर उठे शोर को सुन सकते थे… ‘विदा लेने में अभी वक़्त है’… मेरे इतना कहते ही तुम मेरी पीठ पर कान लगाकर मेरी चढ़ती उतरती सांसो को रीढ़ की हड्डियों में महसूस करने लगीं। यहाँ चुप्पी नहीं है। अब तुम मौन हो, मैं अब सुन सकता हूँ… तुम्हें, तुम्हारी हथेलियों की जकड़ में…

प्रेम में संवाद के लिये शब्दों की ज़रूरत कम पड़ती जाती है… जो घट रहा है वो मौन संवाद है… दो जोड़ी आँखे निहार लेती हैं एक तारा, एक समय में। यह सम्भव है, सिर्फ प्रेम में। इस पहर में परिजात के फूल पृथ्वी के आलिंगन में हैं। विदा हो लेने का वक़्त आ चुका था…

तुम्हारे जाने के बाद मैंने दर्ज करना चाहा था सब कुछ… सुनोगी… (तुम सिगरेट सुलगाने लगीं…)

“इक रात के अंधेरे में उसके चेहरे को टटोल रहा हूँ,
लगा जैसे मैंने चाँद को छूआ अभी-अभी
एक ठण्डी हवा बही
और सिहर गया मेरा मन
हौले से चूम लिया उसके ललाट को
अपने उंगलियो को घुमाने लगा
उसके चेहरे पर
जैसे कोई चित्रकार घुमाता है
पेंटब्रश किसी कैनवास पर

मैंने उस रोज़ भोर का इंतेजार किया
उगते सूरज से कुछ लालिमा उधार ली
और मल दिया उसके होंठो पर
अब सुर्ख से रहने लगे है होंठ उसके

पहली बार सबके जगने से पहले
मैंने उसकी अलसायी आँखों मे झाँका
और डूबा रहा सदियों तक
जैसे गुम हो गया हो कोई अजनबी
किसी घने जंगल में और,
अब शहर वापस लौटने की चाहत ना हो।”

कविता खत्म होते ही, तुमने आधी सिगरेट मेरी तरफ बढ़ा दी। तुम्हारी साँसे मेरे कानों से टकरा रही थीं। मेरी नज़र घड़ी की सूई पर अटकी थी। आज भी विदा ले लोगी और कल मैं फिर तुम्हारे लौटने का इंतेजार करूँगा… ‘आलोक धन्वा’ सच कहते हैं- एक बार और मिलने के बाद भी एक बार और मिलने की इच्छा पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी।

***

हमने जीवन को पेंडुलम की तरह बना रखा है। जिसका एक छोर बीते हुए कल को छूता है, तो दूसरा छोर आने वाले कल को। हमने वर्तमान में ठहरना कभी नहीं सीखा। हम जो जी रहे हैं, वो बीता हुआ कल है और उसमें थोड़ा सुख और बहुत सारा दुःख ढूंढते हैं। हमारा ‘आज’ बिखरा रहता है हमारे ही पास, और हम भूल जाते हैं- इसे ‘भी’ नहीं, इसे ‘ही’ जीना है और इस तरह किसी आने वाले कल में उठते हैं आज के इस बिखरे को समेटने… और अंततः हम अफ़सोस को सफ़ेद रूई की तरह तकिये में भरते हैं… और सिरहाने रख कर सो जाते हैं।

मन सुकून खोजता है और सुकून का दूसरा नाम ठहराव है… और हमने आज में ठहरना कभी नहीं सीखा। और इस तरह ठहराव के खालीपन को भरने के लिए ‘बेचैनी’ घेरा बनाने लगती है। अब चित्र, आँखे नहीं पकड़तीं। हमने यह काम कैमरे को सौंप दिया है। हम सुख भोगना भूल गये हैं। सुख, आज का सुख, अभी-अभी का सुख… हम छूना भूल गये हैं! हमें जल्दी है… किसी छूट रहे को पकड़ने की और इस तरह हमने अभी-अभी को बिना छूए जाने दिया, जो कल अफसोस की सफ़ेद रूई में बदल जायेगा और पड़ा रहेगा सिरहाने…

मुझे याद है, तुम्हारे होंठ के ऊपर काला तिल है, पर स्मृति में अटकी धुंधली तस्वीर में वो होंठ के बाएँ तरफ है या दाएँ, मैं खोज नहीं पा रहा… और,

मुझे अफ़सोस है कि मैंने तुम्हें ठहर कर नहीं देखा…

***

मैं अपने इंतज़ार में घंटो खड़ा रहता हूँ, सीढ़ियों से उतर कर देखता हूँ, चढ़ते वक़्त पहले पायदान पर तो नहीं छूट गया? अतीत में जाकर टटोलता हूँ, ड्राफ्ट में लिखे गए राइट अप्स को दुबारा पढता हूँ, जिसे कभी कहीं पोस्ट नहीं किया। दिल्ली की कई सड़को पर खुद की तलाश में बार-बार चला हूँ। उस मोड़ पर रुक कर देखा जहाँ आखिरी बार हमने एक दूसरे को देखा था। आईने में जो दीखता है वो मैं नहीं हूँ। मैं कही छूट गया हूँ। मैं इन दिनों कुछ लिख नहीं पा रहा हूँ। यह एक टीस है जो धीरे-धीरे डर में बदल रही है।

तुम मेरी उंगलियों के बीच की जगह को अपनी उंगलियों से भर कर, मेरे बिखरे वर्तमान को मेरे हाथों पर समेट कर रख देती थीं… मुट्ठी खुलते ही एक सफ़ेद पंख होता था। मैं इसे ‘सुख’ कह कर पुकारता था!

सख्त, सपाट हथेलियों पर पंख के टुकड़े ज्यादा देर तक नहीं ठहर सकते, हवा के आते ही वो उड़ सकता है और मुट्ठी बंद कर लेने भर से उस पंख का दम घुट सकता है। इसे कुछ देर संभाले रखने के लिए हथेली को मोड़ कर नरम खोल बनाना अनिवार्य है। तुम्हारे जाने के बाद… मेरी उंगलियों के बीच की जगह बढ़ती जा रही है… मैं अपने दूसरे हाथ की उंगलियों से इस खाली जगह को भरने की कोशिश करता हूँ। एक दूसरे से जकड़ी हथेलियों को सीने तक लाता हूँ। आँख बंद कर महसूस करना चाहता हूँ, अपने वर्तमान को… मैं देखता हूँ- तुम पहाड़ो में दूर खड़ी उड़ते सफ़ेद पंख को पकड़ने की कोशिश कर रही हो… क्या तुम वापस लौटोगी, और उस सफ़ेद पंख को मेरे हथेलियों पर फिर रख पाओगी?

PS- यह न कहानी है न कविता, इस लिखे में तुम हो, तुम्हारा शहर है, भीड़ में अकेलेपन की तलाश है, चाय की घूंट है, और दोपहर की उदासी में लिपटा इंतजार…

– गौरव गुप्ता
email- gaurow.du@gmail.com

गौरव गुप्ता
हिन्दी युवा कवि. सम्पर्क- gaurow.du@gmail.com