जब मैंने पहाड़ों पर तुम्हारा नाम पुकारा, उस वक़्त तुम समुंदर की ओर पीठ की थी और अचानक मुड़ गयी थी। हम दोनों एक-दूसरे को अकेले-अकेले जी रहे थे, अपने-अपने एकांत में… यह प्रेम था! एक जिद भी थी, जो हमें साथ-साथ नहीं जीने दे रही थी। हमने इस जिद को आधा-आधा साझा कर लिया था। दीवार पर पुराना रंग ही है, तुम्हारे पसन्द का… आसमानी… यह उदासी भरा है अब, सबने रंग बदलने की सलाह दी है। सब कहते हैं, मैं इस लिये भी बीमार रहने लगा हूँ… “तुम यहीं हो” का निशान दीवार पर कई जगह है… यह उन्हें नहीं दिखता… वो नाहक ही मेरी चिंता करते हैं… “मैं बिल्कुल ठीक हो जाऊँगा” यह, मैं उनसे बार-बार कहता हूँ। कभी-कभी लगता है यह मैं उन्हें नहीं, खुद को कह रहा।
कल रात एक सपना देखा। तुम मेरी चिता के पास खड़ी हो। मैं तुमसे लिपटना चाहता हूँ, पर मैं उठ नहीं पा रहा। और मैं अचानक कॉकरोच बन जाता हूँ। तुम डर कर भागती हो मुझसे और फिर तुम मुझे मार देती हो। मैं कब मरा… पहली बार में, या दूसरी बार में… मैं डर गया… किसी का मरना कभी नहीं डराता, डराता है तो इस बात का एहसास की वो अब हमसे कभी बात नहीं कर पायेगा। दिसम्बर आते ही तुम कहती थी, मिस्टर! तुम्हें सर्दी लग जाती है, ख्याल रखा करो… और इस तरह तुम पूरे दिसम्बर ख्याल रखती थी…
प्रेम में हम खुद के लिये गैर जिम्मेदार हो जाते हैं…
अब मैं बीमार नहीं दिखना चाहता! मैं कम से कम पर्दे तो बदल ही सकता हूँ। उदास दीवार और तुम अब भी वहीं रहोगी.. नये पर्दे की ओट में… सब खुश थे.. क्योंकि मैं ठीक हो रहा हूँ … यह सुखद भ्रम था… ठीक वैसा ही जैसे मुझे हर दोपहर लगता है “तुम किचन में चाय बना रही हो”… साँस, सुखद भ्रम के बिना शरीर छोड़ सकती है कभी भी… जब कभी इस घर में लौटना तो बिखरी किताबों को सहेज देना… जो तुम गुस्से से फैला कर चली गयी थी… और मेरे पैर में लिपटा “मैं सही हूँ” का जंजीर मुझे बिस्तर से उठने ना दिया… उस रोज दरवाजा पूरी रात खोल कर सोया था मैं… दिसम्बर रात की सर्द हवा ने उस रोज से मुझे बीमार कर दिया….
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मेरी परछाई मुझसे पीठ टिका कर घण्टों मेरी चुप्पी सुनती है।
उतरती-चढ़ती साँसों को रीढ़ की हड्डियों से महसूस कर पाना आसान नहीं, यह कला प्रेम करने वालोंं के हिस्से ही आती है…
मुझे कविता पढ़ना पसन्द था और उसे मुझे कविता पढ़ते हुए देखना! तुम कविताओं में क्या ढूँढते हो? उसने कल रात पूछा। किन्ही दो शब्दों के अन्तराल में दुबका दुःख, विरह से लिपटा प्रेम, धूप-सी कोई हँसी, पसीने से भीगा कोई नर्म हाथ, उम्मीद से भरी पनिआई आँखें, करवटें लेता एक लम्बा इंतेज़ार… इन सब में मैं कहीं हूँ? मैंने मुस्कराकर टेबल लैम्प बन्द कर दिया, और वो किसी जादू सी गायब हो गयी। कभी-कभी हम अपने प्रेम का सबसे ज़्यादा एहसास उन्हें उस समय दिला रहे होते हैं जब वो वहाँ अब मौजूद नहीं होते। अन्ततः यादों के साथ पीठ टिकाकर बैठ जाना सुखद लगता है उस क्षण।
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मैंने कहा “अचानक…” और वो खिड़की से झांकती धूप को मुट्ठियों में बंद करने लगी। मैंने उसे डाँटते हुये कहा, “बैठ जाओ” और वो एक तीन साल के बच्चे की तरह डर कर बैठ गयी… उसने कहा मेरा दम घुटता है कभी-कभी… मैंने कहा बाहर जाना माना है तुम्हें… उसने फिर कहा- मेरा दम घुटता है यहाँ… मैं बाहर जा सकती हूँ… मैं उसे बिना जबाब दिये दूसरे कमरे में चला गया। वो पैर पटक कर बताती रही कि उसे सचमुच दम घुट रहा है यहाँ… मैं चाहता था कि उससे कहूँ कि मुझे इस कमरे में उसे बंद रखने से दुःख होता है। मैं चाहूँ तो उसे आजाद कर सकता हूँ। मैं चुपचाप सिगरेट सुलगाने लगा। थोड़ी देर बाद वो पास आकर बैठ गयी और मेरे काँधे पर सिर रखते हुये कहने लगी, मैं समझती हूँ, मैं कभी इस कमरे से बाहर निकलने की जिद नही करूँगी.. और सिगरेट को मेरे हाथों से लेते हुये कमरे के कोने में फेंक दी। कमरे में अंधेरा है और आधी जली सिगरेट अब भी जलती हुई दिख रही है। हम दोनों उस अंधेरे कमरे में अपनी हर लड़ाई के बाद बैठ जाते हैं।
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हमनें जीवन को पेंडुलम की तरह बना रखा है। जिसका एक छोर बीते हुये कल को छूता है, तो दूसरा छोर आने वाले कल को… हमने वर्तमान में ठहरना कभी नहीं सीखा… हम जो जी रहे हैं, वो बीता हुआ कल है… और उसमें थोड़ा सुख और बहुत सारा दुःख ढूंढते है… हमारा ‘आज’ बिखरा रहता है हमारे ही पास, और हम भूल जाते हैं, इसे ‘भी’ नहीं, इसे ‘ही’ जीना है… और, इस तरह किसी आने वाले कल में उठते हैं आज के इस बिखरे को समेटने… और अंततः
हम अफ़सोस को सफेद रुई की तरह तकिये में भरते हैं और सिरहाने रख कर सो जाते हैं…
मन सुकून खोजता है..और सुकून का दूसरा नाम ठहराव है… और हमने आज में ठहरना कभी नहीं सीखा… और इस तरह ठहराव के खालीपन को भरने के लिए ‘बेचैनी’ घेरा बनाने लगती है… अब चित्र, आँखे नहीं पकड़ती… हमने यह काम कैमरे को सौंप दिया है… हम सुख भोगना भूल गये है… सुख आज का सुख, अभी-अभी का सुख… हम छूना भूल गये है… हमें जल्दी है… किसी छूट रहे को पकड़ने की और इस तरह हमने अभी-अभी को बिना छुये जाने दिया…. जो कल अफसोस कि सफेद रुई में बदल जायेगा.. और पड़ा रहेगा सिरहाने… मुझे याद है, तुम्हारे होंठ के ऊपर काला तिल है.. पर स्मृति में अटकी धुंधली तस्वीर में वो होंठ के बाएँ तरफ है या दाएँ, मैं खोज नहीं पा रहा… और,
मुझे अफ़सोस है कि मैंने तुम्हें ठहर कर नहीं देखा…
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छत पर पूरी रात आसमाँ ताकना पसंद है मुझे। शायद देखना उपयुक्त शब्द नहीं है यहाँ, इसलिये मैंने ताकना शब्द प्रयोग किया। इस शब्द में इंतेजार कहीं छुपा पड़ा है। इन अनगिनत तारों में मेरा एक पसन्दीदा तारा है, जो मुझे ढलते शाम के साथ उगते तारों में सबसे पहले दिखता है। इसे पहली बार कब देखा शायद याद नहीं, उस तारे को जब भी मैं देखता हूँ मुझे लगता है मेरे देखने और देखते रहने तक उसकी चमक धीरे-धीरे बढ़ रही होती है। कुछ है जो मेरे और उसके बीच घटता है। मैं शाम होते ही उस तारे को खोजने छत पर भागे आता हूँ। मैं अनगिनत तारों में उसे झटके से पहचान सकता हूँ। कभी-कभी लगता है सारे तारे होड़ कर रहे है उससे ज्यादा टिमटिमाने की, और वो तारा इन असंख्य तारों में “कही खो ना जाये” का डर मेरे आसपास घेरा बना लिया करता है… मैं उस समय इसे ‘और जिद’ में देखता रहता हूँ… मैं उसे खोना नहीं चाहता… मैंने उसका नाम रख दिया है ‘सपना’… और उसके साथ उस असंख्य तारों को मैं ‘जरूरत’ कह के बुलाता हूँ… उगते ‘जरूरतों’ के बीच अपने उस ‘सपने’ को देखते रहने की जिद जिंदा है.. किसी रोज वो तारा टूट कर गिरेगा मेरी मुट्ठी में…
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सिगरेट के कश को फेफड़ो में भर लेता हूँ, क्योंकि इस खालीपन को भरने का एक मात्र जरिया है, जो मेरे इस हालात में पसन्द है मुझे। बन्द अँधेरे कमरे में एक सुकून मिल रहा मुझे। अब खिड़की के छोटे छेद से आती रौशनी शरीर को भेदती हुई मालूम पड़ रही।
मैं खुद से दूर भाग रहा, और जब मैं खुद से दूर भाग रहा होऊं तो वहाँ तुम्हारा ठहरना भी ठीक नहीं।
ये क्या, अपनी उंगलियों को मेरे शरीर पर मत फेरो। नहीं इसका वजन मैं नही सह पा रहा। हटा लो। कुछ दूर चली जाओ…
इस कमरे से बाहर… हाँ मैंने कहा इस कमरे से बाहर…
इस कमरे में तुम्हारी उपस्तिथि से उभरे प्रेम में मुझे एक गंध महसूस हो रही, जो मेरा गला घोंट रही है।
मेरे कविताओं के पन्नों की ओर नजर मत दौड़ाओ! इस वक़्त न मैं कविता लिखना चाहता हूँ, न पढ़ना और न सोचना, क्योंकि इस हालात में मैं कविताओं का गला नहीं घोटना चाहता, ना पढ़ कर ना लिख कर। हाँ मैं अजीब हो गया हूँ, बहुत अजीब…
मैं तुमसे ही नहीं, खुद की कैद से भी आजाद हो जाना चाहता हूँ। क्योंकि तुम्हारी अपेक्षाओं की तरह मेरा वजूद मुझसे अपेक्षाएँ करने लगा है।
मैं, मैं तो हूँ ही नहीं कहीं… बस एक हाड़ मांस का इंसान जो बचपन से अब तक दुनिया की अपेक्षाएँ पूरी कर रहा। वह प्रेम करते-करते, जिम्मेवारी को भी अपने सिर पर ओढ़ ले रहा…
हाँ, मैं भाग रहा- खुद से, तुमसे, इस बोझिल समाज से, और तब तक भागूँगा जब तक मैं थककर चूर-चूर न हो जाऊं, जब तक सारी अपेक्षाएँ खुद अपना दम न घोट लें.. और एक दिन रुई के फाहे की तरह उड़ जाऊँ हवाओं के साथ..
(यह ना कहानी है, ना कविता.. इस लिखे में सिर्फ मैं और तुम नहीं हो, तुम्हारा शहर भी है.. एक कप चाय की गर्मी भी है.. एक गहन चुप्पी भी है.. शहर के भीड़ में एकांत तलाशता मन भी है)