Insta Diary (Part Five) – Diary in Hindi – Gaurow Gupta

अक्सर हम जहाँ होते हैं, वहाँ सचमुच में नहीं होते। और कोई चुपके से पकड़ ले आपकी ग़ैर मौजूदगी को तो आप सकपका जाते हैं। जैसे बचपन की लुका-छिपी में किसी ने अचानक से धप्पा कर दिया हो!

बहुत ख़ुशी में तुम्हारी ग़ैर मौजूदगी मुझे मेरे अकेलेपन से मिलाती है, जिससे मैं अक्सर भागता हूँ। भीड़ से आयी मेरे नाम की आवाज़ मुझे सुनायी नहीं देती, क्योंकि मुझे यह आवाज़ किसी अनजान के लिये किसी अनजान द्वारा पुकारी गयी आवाज़ लगती है। जानता हूँ जिससे मैं मिलूँगा, उससे मैं नहीं मिलूँगा। मैं ख़ुद को छोड़ आया हूँ किसी ख़ाली कमरे में, जहाँ ‘तुम हो’ की गंध फैली हुई है।

शहर का आसमाँ बहुत ख़ूबसूरत है इन दिनों। तुम इन दिनों इस शहर में तो नहीं हो?!

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मेरी कहानियों के सारे किरदार किवाड़ से बाहर निकलते जा रहे हैं और इस बड़े थियेटर में मैं बहुत चुप्प बैठा हुआ हूँ, बिल्कुल अकेला… मैंने थोड़ी देर कुर्सी पर सिर टिका लेना चाहा। स्टेज बिल्कुल ख़ाली है, पर उन किरदारों की ग़ैर मौजूदगी में भी, मैं उन संवाद को सुन पा रहा हूँ, साफ़-साफ़। जैसे बिना देह के कई संवाद गूँज रहे हों और इन्हें सुनकर उन किरदारों को गढ़ा जा सकता है, उनके चित्र उकेरे जा सकते हैं, जैसे रिप्ले हो रहा हो नाटक…

कई बार आँखें बंद करता हूँ और अपने अंदर की हलचल के सिर पर हाथ फेरता हूँ तो वो मुझे अपने गहरे में उतरने की अनुमति देती है। मैं पाता हूँ कई संवाद वैसे ही पड़े हैं, शब्दशः! हालाँकि कोई किरदार अब यहाँ मौजूद नहीं है। ठीक उस ख़ाली स्टेज की तरह। मौजूद है तो किसी की शिकायतें, प्रेम निवेदन, अपेक्षाएँ, हताशा, प्रशंसा तो किसी के भरोसे के शब्द, और फिर संवाद और किरदार के बीच तारतम्य बिठाने लगता हूँ…

कभी कभी सोचता हूँ हम अपने अंदर कितने सारे ज्वालामुखी लेकर घूमते हैं! किसी दिन फूटेगा तो इस राख को कौन बीनेगा?

मैंने, ज़िन्दगी के थियेटर के बीचों-बीच अकेले बैठना ख़ुद चुना है। पर इस बड़े थियेटर के सन्नाटे में अकेले बैठने से कभी-कभी डर भी लगता है। हम कई बार किसी की मौजूदगी की इच्छाओं को नजरअंदाज़ करते हैं और कई बार बग़ल की सीट से उठकर जाते हुए किसी से कभी नहीं कह पाते-

“अगर जल्दी ना हो तो थोड़ी देर बैठ जाओ…”

और उसके जाते ही अफ़सोस जैसा बिना देह का शब्द, स्टेज पर गूँजने लगता है…

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…फ़र्श पर बिखरी याद बीनती लड़की छू लेती है ठंडे फ़र्श को जैसे वो फ़र्श नही, ठंडी पड़ी हुई उसकी ख़ुद की आत्मा हो। घड़ी की सुई देखते देखते किसी शून्य में प्रवेश करना उसकी आदत बनती जा रही है। सपने जो टाँके थे आसमाँ में उतार लायी है और आलमारी में बंद कर रख दिए हैं। किताब के पन्ने पलटते हुए उसे लगता है जैसे पलट दे तेज़ी से दुःख का चैप्टर। कभी कभी लगता है उड़ेल दे गर्म चाय का कप फ़र्श पर, ठंडी पड़ी आत्मा में कुछ तो हलचल हो…

वो दरवाज़े पर बार बार जाती है और पलंग पर आकर बैठ जाती है, अपने हथेलियों को देखने लगती है… दुनिया की सबसे नर्म हथेली कह कर धीरे से चूमे जाने वाले हाथ प्यास से खुरदुरे हुए जा रहे हैं। आईने में देखती है आँखों के नीचे इंतज़ार की रात जमी बैठी है। वो किताब ढूंढने लगी जिसमें उसने सुख के चैप्टर को बुकमार्क किया था। किताबों की आलमारी छान लेने के बाद ना मिलने पर थक कर बैठ गयी। उसे ख़्याल आया वो किताब उसने उसको जाते वक़्त दे दी थी। उसने सोचा उसे फ़ोन लगाया जाए… उसकी आवाज सुन लेने भर का यह कोई बहाना तो नहीं…

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किसी की याद जो बेंच पर आकर बग़ल में बैठ गयी, पुराना दुःख मेट्रो में चढ़ा और चला गया… ख़ाली प्लेटफ़ॉर्म पर एक प्रेम कहानी टहलने लगी…

काफ़ी देर बाद मुझे यूँ ही बैठा देख किसी ने कहा- “आप शायद ग़लत मेट्रो का इंतज़ार कर रहे हैं? आपको जाना कहाँ है?”

मैंने कहा- “कही भी नहीं…”

मैं सबको अपने पास से गुज़रता हुआ देखता हूँ। सब जल्दी में हैं, कहीं जाने की… हर भीड़ आती है, और थोड़ी देर में ग़ायब हो जाती है।

“आप ज़िन्दगी की बात कर रहे हैं?” – उसने कहा।

“नहीं, मेट्रो की… हालाँकि इंतज़ार दोनों ही जगह है।”

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“लेखक को लिखने के लिये अपने आसपास एक क़ब्र जैसी शांति चाहिये, ताबूत सा टेबल, सिमेट्री में जलते लैंप पोस्ट की पीली रोशनी, क़ब्र पर बिखरे फूलों की तरह मनपसंद किताबें, और थर्मस भर चाय…”

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गौरव गुप्ता
हिन्दी युवा कवि. सम्पर्क- [email protected]