बहुत थी खामियां तुझमें, बहुत नादानियां मुझमें
कलम को मैं मना भी लूं तो स्याही रूठ जायेगी।
कोई सैलाब अब अंदर उमड़ता भी नहीं मेरे
न अब सागर मिले वर्ना नदी ये डूब जाऐगी।
मुझे हैं इल्म कि तुझको हंसी आती रही मुझ पर
तू मुस्काता रहे दिल से यही आवाज आयेगी।
किन्ही पन्नों में रोलेगी तेरी तो दिल्लगी भर थी
किताबे-इश़्क में मेरी मोहब्बत मुस्कुरायेगी।
कविताओं में तैरेगी मेरे जज़्बात की कश़्ती
इश़क की हैं बहुत छोटी कहानी छप न पाएगी।
15/05/19
रिया ‘प्रहेलिका’
रिया ‘प्रहेलिका’