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ईश्वर तुम शब्द हो कि वाक्य हो?
अर्द्धविराम हो या पूर्णविराम?
सम्बोधन हो या प्रश्नचिह्न?
न्याय हो या न्यायशास्त्री?
जन्म हो कि मृत्यु
या तुम बीच की उलझन में निरा सम्भोग हो
तुम धर्म हो कि कर्म हो
या कि तुम सिर्फ़ एक कला हो, रोग हो
ईश्वर तुम फूलों जैसे हो या ओस जैसे
चलने में तुम कैसे हो
दो पैरोंवाले? चार पैरोंवाले या सिक्के जैसे?
एक पुरानी कहानी में खड़े हो तुम तीन पैरों से
अच्छे नहीं लगते चार हाथ और तीन पैर
तुम चतुरानन हो या पंचानन
(आख़िर तुम्हारा कोई असली चेहरा तो होगा)
हे ईश्वर! तुम गर्मी हो या जाड़ा
अँधेरा हो या उजाला?
अन्न हो कि गोबर हो?
ईश्वर तुम आश्चर्य हो कि विस्मय?
भीतर के अँधेरे में आँख से पहुँचते हो या नाक से?
कान से पहुँचते हो या उत्पीड़न से?
आँख से पहुँचते हैं रंग
नाक से गंध, कान से पहुँचती हैं ध्वनियाँ
त्वचा से पहुँचते हैं स्पर्श
हे ईश्वर! तुम इंद्रियों के आचरण में हो या मन के उच्चारण में?
हे ईश्वर! तुम सदियों से यहाँ क्यों नहीं हो
जहाँ तुम्हारी सबसे ज़्यादा और प्रत्यक्ष ज़रूरत है!
लीलाधर जगूड़ी की कविता 'लापता पूरी स्त्री'