‘Jal Ki Us Boond Jitna Astitva’, a poem by Vaishali Raj

मैंने कब कहा
कि मुझे स्वामिनी बनाकर
पूज्य स्थान पर प्रतिष्ठित करो,
मैंने कब चाहा
तुम रखो मेरे चरणों में
संसार की समस्त सुख सुविधाएँ और भोग विलास,
मैंने कब माँगा
तुम्हारे प्रत्येक क्षण का हिसाब
तुम्हारे भूत, भविष्य, वर्तमान पर एकाधिकार,
मैंने तो बस इतना चाहा
कि जब मन मस्तिष्क में अशांति
और नितान्त अकेलापन मेरे आसपास घिर आए
जब ह्रदय में व्याकुलता,
आँखों में उदासी,
और होंठो पर ख़ामोशी छा जाए
किन्तु शरीर यंत्रवत काम करता रहे
तब तुम
मेरी आँखें पढ़कर
मुझे अपने अंक में भरकर
धीरे से अपना हाथ मेरे सर पर रखकर
बालों को सहलाते हुए
एक मधुर संगीत सुनाओ
और मिटा दो तन-मन की सारी व्याकुलता को,
अपनी घोर व्यस्तताओं और अनंत कर्त्तव्यों
के बीच
मुझे भी ये एहसास करवाओ कि
नितान्त अकेलापन मुझे नहीं घेर सकता तुम्हारे होते हुए,
ये एहसास कि
मेरा भी कुछ अस्तित्व है तुम्हारे जीवन में
हो सकता है…
सागर जितना विशाल नहीं
किन्तु…
जल की हर उस बूँद जितना अवश्य जो
सागर के लिए अनिवार्य होती है…!!