यही सोचते हुए गुज़र रहा हूँ मैं कि गुज़र गयी
बग़ल से
गोली दनाक से।
राहजनी हो या क्रान्ति? जो भी हो, मुझको
गुज़रना ही रहा है
शेष।
देश
नक़्शे में
देखता रहा हूँ हर साल नक़्शा बदलता है
कच्छ हो या चीन
तब तक दूसरी गोली दनाक से।
हद हो गयी, मुझको कहना ही पड़ेगा, हद कहीं नहीं
चले आओ अंदर
मुझको उघाड़कर
चूतड़ पर बेंत मार
चेहरे पर लिख दो—यह गधा है। तब भी जो जहाँ
है, वहीं बँधा है
अपनी बेहयाई को
सँवारता हुआ चौदह पैसे की कंघी से।

चले जाओ
चकले पर, टाट पर, जहन्नुम में, लाट पर,
खुदबुदाते हुए प्रेम, बिलबिलाती हुई इच्छा, हिनहिनाते
हुए क्रोध को मरोड़ दो। क्या होगा? छूँछा
होता हूँ हर बार ताकि और भी मवाद हो।

दाद हो खुजली हो, खाज हो हरेक के लिए
है
मुफ़ीद,
आज़माइए, मथुरा का सूरदास मलहम।
क्या कहा? साँडे का तेल? नहीं, नहीं,
कामातुर स्त्रियाँ, लौट जाएँ, वामाएँ,
मैंने गुज़ार दी, ऐसे ही, लौट जाएँ
सब अपने-अपने ठिकानों पर
पाप संसार में,
मन्त्री अस्तबल में,
पाखण्डी गर्भ में,
अफ़सर जिमख़ानों में।

वर्षा नहीं होगी, ख़बरों के अपच से, सब-के-सब मरेंगे
एक राजधानी को छोड़
उठती है मरोड़ अभी से टीका लगवाइए घी का
भाव दूना हो गया है सूना
लगता है लस्सा ही
नहीं रहा।

क्या कहा? नहीं, नहीं, मथुरा का सूरदास मलहम
मुफ़ीद है
दाद हो, खुजली हो, खाज हो,
—जिस किसी का राज हो
मुझको मंज़ूर नहीं किसी की शर्तें, किसी की दलील
कि उसने मारा मेरे दुश्मन को
कोई मेरा वकील नहीं,
मर्दुमशुमारी के पहले ही मुझे कूच कर जाना है हरेक कूचे से,
सब की मतदान पेटियों में
कम होगा एक-एक वोट,
मुझको मंज़ूर नहीं किसी की शर्त।

मुझको गुज़रना है भरी हुई भीड़ से, मक्खियों के
झुण्ड से
एक-एक कर अपने सभी दोस्तों के नज़दीक से
ठीक से
चलो, कहकर, मुझको धकियाता है, ऊलजुलूल,
आँखें तरेरकर
घेरकर
कहाँ लिए जाते हो मुझको मेरे विरुद्ध?
छोड़ दो, छोड़ो, छोड़ो, वरना! वरना के आगे
कुछ नहीं, बस स्टॉप है जिसका
मुँह
किसी की तरफ़ नहीं।
मुझे भी बदल दो बस स्टॉप में
छोड़
दिया गया है
मुझे अनन्त काल तक
भटकने
के लिए
इस प्रलाप में

ऑनरेरी सर्जन। कनसल्टेंट, मिलने का समय, पाँच से सात,
मेरा उद्धार करो—
मेरा स्वाद बदल रहा है, रहते-रहते
मैं भी
यहाँ का
हो चला
हो चली
शाम
बदलो, बदलो अपने मिलने का समय, यह समय वह समय
नहीं

दुख, लेन-देन, रह गया माल, दुर्घटना, वेश्या, घेराव,
कम्युनिस्ट पार्टी की जनता, जनसंघ का लोक
किए का शोक, अनकिए का
शोक
छा गया है

ख़ुदाबख़्श हिजड़े की बेवजह मौत पर, फ़ौजदारी
क़ायम हो,
क़ायम हो, तुम अब तक, वैसे
सच यह है
मैं तुमको पहचान नहीं पाया था अबकी,
जाने कब-कब की उतर रही है
साथ-साथ
छतों से, पलंग से, सीढ़ी से
नीली, पीली, बजी हुई
निगल रही है
अंतिम दृश्य को

भविष्य को अँगुली पर रखता है ज्योतिषि
बनिया तिजोरी में,
पकड़ा गया था जिस चोरी में
तीन साल पहले अज्ञानसिंह, उसका अब भेद
खुला

खुला-खुला लगता है, वैसे, पर सचमुच
डरा-डरा,
हरा-भरा, लिखता है, सौवाँ, मैंने क्या
ठेका ले रखा है बाक़ी निन्यानबे का
फेर
देर वैसे भी हो चुकी, चौसर की तरह
बिछे
नक़्शे पर बैठ गया कौवों का प्रसंग। पृथ्वी का
हिसाब
हो रहा है—
मुझको इसी बात पर काँव-काँव करने की छूट दो,
क्षमा करो,
छोड़ दो,
रिहाई को बचा ही क्या अब, एक
और ठण्ड-स्नान,
एक
और मोहभंग
सब कुछ प्रतिकूल था, तब भी सम्भव किया मैंने
कविता को
और
कुछ अपने आप को,
धन्यवाद!

तोड़ता है, यथास्थिति, मनसब नहीं, बल्कि
ग़लत बीज
टूटता है सब कुछ
बस धनुष नहीं टूटता
तौला गया था जो सोने से
क्या होगा रोने से, यह कहकर, जमुहाई
लेती हुई
सोने को जाती है विधवा
जिसे
ठोंकता है दिन-भर
चुंगी का दरोग़ा, भैंसों का दलाल।

देखता है काल या कि देखता भी नहीं है?
मुझको
सन्देह है,
इसको सुजाक है, उसको मधुमेह है।

बार-बार पैदा होती है आशंका, बार-बार मरता है
वंश।

क्या मैं इसी तरह, बिल्कुल बेलाग, यहाँ से
गुज़र जाऊँ?
हे ईश्वर मुझको क्षमा करना, निर्णय
कल लूँगा, जब
निर्णय हो चुका होगा।

श्रीकांत वर्मा की कविता 'मन की चिड़िया'

Book by Shrikant Verma:

श्रीकान्त वर्मा
श्रीकांत वर्मा (18 सितम्बर 1931- 25 मई 1986) का जन्म बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ। वे गीतकार, कथाकार तथा समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। ये राजनीति से भी जुड़े थे तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। 1957 में प्रकाशित 'भटका मेघ', 1967 में प्रकाशित 'मायादर्पण' और 'दिनारम्भ', 1973 में प्रकाशित 'जलसाघर' और 1984 में प्रकाशित 'मगध' इनकी काव्य-कृतियाँ हैं। 'मगध' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित हुये।