मुझे बचाओ, मुझे बचाओ—
कहती हुई मैं
आग की दिशा में बढ़ी चली जा रही हूँ
लपटों की तेज़ गर्मी
और जलन अनुभव कर रही हूँ
परन्तु झुलसती हुई भी मैं
उसी को पकड़ने के लिए आतुर हूँ!
मेरी विडम्बना का यह रूप कब ख़त्म होगा?
कब शुरू होगी मेरी अपनी कहानी—
जहाँ सुबह के सूरज की तरह ताज़ी मैं उग सकूँगी
अथवा यों ही सती होती रहूँगी
या जलकर मरती रहूँगी
साक्षात आग में जल मरने वाली स्त्रियाँ कितनी भाग्यवान हैं!
और कुछ नहीं, मुक्त तो हैं!
इतनी लक्ज़री अफ़ोर्ड तो कर सकती हैं,
जो मैं नहीं कर पा रही हूँ!
क्या करूँ? क्या करूँ? क्या करूँ?
चिल्लाती हुई मैं
सभी दिशाओं में
आग बुझाने वाले पानी की तलाश कर रही हूँ।
हिन्दुस्तान में जो औरतें
बर्फ़ नहीं बन जातीं,
वे जलायी जाती हैं
या स्वयं ही जल जाती हैं।
स्नेहमयी चौधरी की कविता 'पूरा ग़लत पाठ'