‘Janpath’, a poem by Jaiprakash Leelwan

वर्णाश्रम की जाँघ चाटने वाले
सतयुगी शासक अब
राजपथ के इर्द-गिर्द बनी
माँदों में घुस चुके हैं।
पक रही है यहाँ
मृत इतिहास की ज़हरभरी
चाशनियाँ, उठाते हैं वे
ज़िन्दगी का हर लुत्फ
और समता भरे भारत के लिए
की गई हर लड़ाई को
कहते हैं जो व्यभिचार।

देवताओं और देशभक्त के
अर्ध्यों में, कारखाने बेचकर
पैदा की गई बेरोजगारी के
यज्ञ को कहते हैं जो ‘नई क्रान्ति’
नाशपीटों की यह धोखेबाज सेना
इतना भी नहीं जानती
कि मेरिडियन होटलों की बगल से
गुजरने वाली कोई भी सड़क
‘जनपथ’ नहीं हो सकती
जनपथ तो उन्हें बनाना है
जिनके हाथ में ’50-साल’
आज़ादी के बाद भी
तख्तियाँ दिया जाना शेष है।

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