ज़िन्दगी के दौरान जो तजुर्बे हासिल होते हैं, उनसे नसीहतें लेने का सबक़ तो हमारे यहाँ सैकड़ों बार पढ़ाया गया है। होशियार और बेवक़ूफ़ में फ़र्क़ बताते हुए एक बहुत बड़े विचारक ने यह कहा, “ग़लतियाँ सब करते हैं, लेकिन होशियार वह है, जो कम-से-कम ग़लतियाँ करें और ग़लती कहाँ हुई, यह जान ले और सावधानी बरते कि कहीं वैसी ग़लती तो फिर नहीं हो रही है।”

जो आदमी अपनी ग़लतियों से पक्षपात करता है, उसका दिमाग़ साफ़ नहीं रह सकता।

ग़लतियों के पीछे एक मनोविज्ञान होता है। या यूँ कहिए कि ग़लतियों का स्वयं एक अपना मनोविज्ञान है। तजुर्बे से नसीहतें लेते वक़्त, अपने ग़लतियों वाले मनोविज्ञान के कुहरे को भेदना पड़ता है। जो जितना भेदेगा, उतना पाएगा। लेकिन पाने की यह जो प्रक्रिया है, वह हमें कुछ सिद्धान्तों के किनारे तक ले जाती है, कुछ सामान्यीकरणों को जन्म देती है। यानी, तजुर्बे की कोख से सिद्धान्तों का जन्म होता है।

मैं अपने तजुर्बे से कौन-सा निष्कर्ष निकालूँ, यह एक सवाल है और तजुर्बा यह है।

एक उत्साही सज्जन को जब मैंने यह कहा कि फ़लाँ पार्टी छुईखदान गोलीकाण्ड पर इतनी देर से क्यों वक्तव्य निकाल रही है, तो उसका जवाब देते हुए उन्होंने यह कहा कि वक्तव्य मैंने लिखा (वे उस पार्टी के हैं), और पार्टी उसे पास करने जा रही है। आपका भी यह काम था कि आप वक्तव्य को जल्दी-से-जल्दी लिखते और पास करवा लेते।

मैंने इसका जवाब यह दिया कि वह मेरा काम नहीं हैं। मेरे काम में हिस्सा बँटाने के लिए क्या वे लोग आते हैं? (‘मेरे काम’ से मेरा मतलब ‘साहित्यिक कार्य’ से था) उन्होंने उसका जवाब यह कहकर दिया कि यह आपका व्यक्तिगत कार्य है और वह सामूहिक।

इसका यह मतलब हुआ कि साहित्य एक व्यक्तिगत कार्य है और राजनीति सामूहिक कार्य, और सामूहिक कार्य में व्यक्तिगत स्वार्थ की कोई महत्ता नहीं।

लेकिन क्या यह सच है? क्या कवि-कर्म मात्र व्यक्तिगत है? क्या साहित्य-कार्य की मूल प्रेरणा और क्षेत्र शुद्ध व्यक्तिगत है?

मज़ेदार बात यह है कि साहित्य को मात्र व्यक्तिगत कार्य कहकर, व्यक्तिगत उत्तरदायित्व कहकर, अपने हाथ झाड़-पोंछकर साफ़ करने वाले ठीक वे ही लोग हैं, जो ‘जनता के लिए साहित्य’ का नारा बुलन्द करते हैं, गो उन्हें यह मालूम नहीं है कि जिन शब्दों को वे बार-बार दुहरा रहे हैं, उनका मतलब क्या है?

यह छोटी-सी बात हमारे हिन्दुस्तान के पिछडे़पन को ही सूचित करती है। स्वतन्त्र होने पर भी, हमारा देश आर्थिक दृष्टि से अभी ग़ुलाम है। औपनिवेशिक देश के बुद्धिजीवी निश्चय ही उतने ही पिछड़े हुए हैं जितना कि उनका अर्थतन्त्र।

यूरोप में एक-एक विचार की प्रस्थापना के लिए बड़ी-बड़ी क़ुरबानियाँ देनी पड़ी हैं, लेकिन हिन्दुस्तान को पका-पकाया मिल रहा है। लेकिन, चूँकि उसके पीछे स्वतः उद्योग नहीं है, इसलिए बहुत-से विचार हज़म नहीं हो पाते। शरीर में उनका ख़ून नहीं बन पाता। आँखों में उनकी लौ नहीं जल पाती। मस्तिष्क में उनका प्रकाश नहीं फैल पाता। इसीलिए विचारों में बचकानापन रहता है और कार्य विचारों का अनुसरण नहीं कर पाते। यह बात हिन्दुस्तान के औपनिवेशिक रूप पर ही हमारी दृष्टि ले जाती है।

हम अपने मूल प्रश्न पर आएँ। क्या साहित्य-कार्य मात्र व्यक्तिगत कार्य है, मात्र व्यक्तिगत उत्तरदायित्व है?

इसका जवाब यों है:

1. साहित्य का सम्बन्ध आपकी संस्थिति से है, आपकी भूख-प्यास से है—मानसिक और सामाजिक। अतएव किसी प्रकार का भी आदर्शात्मक साहित्य जनता से असम्बद्ध नहीं।

2. ‘जनता का साहित्य’ का अर्थ जनता को तुरन्त ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं। अगर ऐसा होता तो क़िस्सा तोता मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते।

साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं। सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए, बुलन्दी, बारीकी और ख़ूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक़्शा साहित्य में रहना है, सुनने या पढ़ने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है। वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार। साहित्य का उद्देश्य सांस्कृतिक परिष्कार है, मानसिक परिष्कार है। किन्तु यह परिष्कार साहित्य के माध्यम द्वारा तभी सम्भव है, जब स्वयं सुननेवाले या पढ़नेवाले की अवस्था शिक्षित [की] हो। यही कारण है कि मार्क्स का दास कैपिटल, लेनिन के ग्रन्थ, रोम्याँ रोलाँ के, ताॅलस्ताॅय और गोर्की के उपन्यास एकदम अशिक्षित और असंस्कृतों के न समझ में आ सकते हैं, न वे उनके पढ़ने के लिए होते ही हैं। ‘जनता का साहित्य’ का अर्थ ‘जनता के लिए साहित्य’ से है और वह जनता ऐसी हो जो शिक्षा और संस्कृति द्वारा कुछ स्टैण्डर्ड प्राप्त कर चुकी हो। ध्यान रहे कि राजनीति के मूल ग्रन्थ बहुत बार बुद्धिजीवियों के भी समझ में नहीं आते, जनता का तो कहना ही क्या। लेकिन वे हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं। ऐसे राजनीति-ग्रंथों के मूल भाव हमारी राजनीतिक पार्टियाँ और सामाजिक कार्यकर्ता अपने भाषणों और आसान ज़बान में लिखी किताबों द्वारा प्रसारित करते रहते हैं। चूँकि ऐसे ग्रन्थ जनता की एकदम समझ में नहीं आते (बहुत बार बुद्धिजीवियों की भी समझ में नहीं आते), इसलिए वे ग्रन्थ जनता के लिए नहीं, यह समझना ग़लत है। अज्ञान और अशिक्षा से अपने उद्धार के लिए जनता को ऐसे ग्रन्थों की ज़रूरत है। जो लोग ‘जनता का साहित्य’ से यह मतलब लेते हैं कि वह साहित्य जनता के तुरन्त समझ में आए, जनता उसका मर्म पा सके, यही उसकी पहली कसौटी है—वे लोग यह भूल जाते हैं कि जनता को पहले सुशिक्षित और सुसंस्कृत करना है। वह फिलहाल अन्धकार में है। जनता को अज्ञान से उठाने के लिए हमें पहले उसको शिक्षा देनी होगी। शिक्षित करने के लिए जैसे ग्रन्थों की आवश्यकता होगी, वैसे ग्रन्थ निकाले जाएँगे और निकाले जाने चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उसको प्रारम्भिक शिक्षा देने वाले ग्रन्थ तो श्रेष्ठ हैं और सर्वोच्च शिक्षा देने वाले ग्रन्थ श्रेष्ठ नहीं हैं। ठीक यही भेद साहित्य में भी है। कुछ साहित्य तो निश्चय ही प्रारम्भिक शिक्षा के अनुकूल होगा, तो कुछ सर्वोच्च शिक्षा के लिए। प्रारम्भिक श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य तो साहित्य है ओर सर्वोच्च श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य जनता का साहित्य नहीं है, यह कहना जनता से गद्दारी करना है।

तो फिर ‘जनता का साहित्य’ का अर्थ क्या है? जनता के साहित्य से अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन-मूल्यों को, जनता के जीवनादर्शों को, प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है। अतः इसमें प्रत्येक प्रकार का साहित्य सम्मिलित है, बशर्ते कि वह सचमुच उसे मुक्तिपथ पर अग्रसर करे।

जनता के मानसिक परिष्कार, उसके आदर्श मनोरंजन से लगाकर तो क्रान्ति पथ पर मोड़ने वाला साहित्य, मनावीय भावनाओं का उदात्त वातावरण उपस्थित करने वाला साहित्य, जनता का जीवन-चित्रण करने वाला साहित्य, मन को मानवीय और जन को जन-जन करने वाला साहित्य, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाले स्वातन्त्र्य और मुक्ति के गीतों वाला साहित्य, प्राकृतिक शोभा ओर स्नेह के सुकुमार दृश्यों वाला साहित्य—सभी प्रकार का साहित्य सम्मिलित है, बशर्ते कि वह मन को मानवीय, जन को जन-जन बना सके और जनता को मुक्ति पथ पर अग्रसर कर सके। साहित्य के सम्बन्ध में यही दृष्टिकोण जनता का दृष्टिकोण है। फ़्रांस के लुई ऐरॅगाँ ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जनता के बीच काम किया और युद्ध समाप्ति पर रोमैण्टिक उपन्यास लिखा। शायद उन्हें जन-संघर्ष के दौरान में दुश्मनों से लड़ते-लड़ते रोमैण्टिक अनुभव भी हुए हों। उन अनुभवों के आधार पर उन्होंने रोमैण्टिक उपन्यास लिखा। किन्तु तुरन्त बाद ही वे ऐसे उपन्यास लेकर आए जिसमें, अलावा एक रोमैण्टिक धारा के, जनता के संघर्ष का सौन्दर्यात्मक चित्रण था। यही हाल इलिया एहरेनबर्ग आदि का है। उनका उपन्यास स्टाॅर्म (तूफ़ान—इसका हिन्दी में अनुवाद हो चुका है) भी जन-संघर्ष के दौरान का चित्रण करता है, जिसमें कई मानवोचित रोमैण्टिक घटनाओं और उपकथाओं का सन्निवेश है। उसी तरह सोवियत साहित्य के अन्तर्गत द्वितीय विश्वयुद्ध के विशाल साहित्य चित्रों में मानवोचित सुकुमार रोमैण्टिक कथाओं और प्राकृतिक सौन्दर्य-दृश्यों का अंकन किया गया है।

जो जाति, जो राष्ट्र जितना ही स्वाधीन है, यानी जहाँ की जनता शोषण और अज्ञान से जितने अंशों तक मुक्ति प्राप्त कर चुकी होती है, उतने ही अंशों तक वह शक्ति और सौन्दर्य तथा मानवादर्श के समीप पहुँचती हुई होती है। आज की दुनिया में जिस हद तक शोषण बढ़ा हुआ है, जिस हद तक भूख और प्यास बढ़ी हुई है, उसी हद तक मुक्ति-संघर्ष भी बढ़ा हुआ है और उसी हद तक बुद्धि तथा हृदय की भूख-प्यास भी बढ़ी हुई है।

आज के युग में साहित्य का यह कार्य है कि वह जनता के बुद्धि तथा हृदय की इस भूख-प्यास का चित्रण करे और उसे मुक्ति पथ पर अग्रसर करने के लिए ऐसी कला का विकास करे जिससे जनता प्ररेणा प्राप्त कर सके और जो स्वयं जनता से प्रेरणा ले सके। अतएव निष्कर्ष यह निकला कि जनता के साहित्य के अन्तर्गत सिर्फ़ एक ही प्रकार का साहित्य नहीं, सभी प्रकार का साहित्य है। यह बात अलग है कि साहित्य में कभी-कभी जनता के अनुकूल एक विशेष धारा का ही प्रभाव रहे—जैसे प्रगतिशील साहित्य में किसान-मज़दूरों की कविता का।

इस विवेचन के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाएगा कि जनता के जीवन-मूल्यों और जीवनादर्शों की दृष्टि में रख जो साहित्य निर्माण होता है, वह यद्यपि व्यक्ति-व्यक्ति की लेखनी द्वारा उत्पन्न होता है, किन्तु उसका उत्तरदायित्व मात्र व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक उत्तरदायित्व है। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में अनुसन्धान करता है और शोध कर चुकने पर एक फ़ॉर्मूला तैयार करता है, यद्यपि वह साधारण जनता की समझ में न आए, लेकिन वैज्ञानिक यह जानता है कि उस फ़ॉर्मूले को कार्य में परिणत करने पर नयी मशीनें और नये रसायन तैयार होते हैं, जो मनुष्य मात्र के लिए उपयोगी हैं। तो उसी तरह जनता भी यह जानती है कि वह वैज्ञानिक जनता के लिए ही कार्य कर रहा है। उसी तरह साहित्य भी है। उदाहरणतः साहित्यशास्त्र का ग्रन्थ साधारण जनता की समझ में भले ही न आए, किन्तु वह लेखकों और आलोचकों के लिए ज़रूरी है—उन लेखकों और आलोचकों के लिए, जो जनता के जीवनादर्शों और जीवन-मूल्यों को अपने सामने रखते हैं। यह बात ऐसे साहित्य के लिए भी सच है जिनमें मनोभावों के चित्रण में बारीकी से काम लिया गया है और अत्याधुनिक विचारधाराओं के अद्यतन रूप का अंकन किया गया है।

वास्तविक बात यह है कि शोषण के ख़िलाफ़ संघर्ष, तदनन्तर शोषण से छुटकारा, और फिर उसके बाद दैनिक जीवन के उदर-निर्वाह-सम्बन्धी व्यवसाय में कम-से-कम समय ख़र्च होने की स्थिति, और अपनी मानसिक-सांस्कृतिक उन्नति के लिए समय और विश्राम की सुविधा व्यवस्था की स्थापना, जब तक नहीं होती, तब तक शत-प्रतिशत जनता साहित्य और संस्कृति का पूर्ण उपयोग नहीं कर सकती, न उससे अपना पूर्ण रंजन ही कर सकती है।

इस सम्पूर्ण मनुष्य-सत्ता का निर्माण करने का एकमात्र मार्ग राजनीति है, जिसका सहायक साहित्य है। तो वह राजनैतिक पार्टी जनता के प्रति अपना कर्त्तव्य नहीं पूरा करती, जो कि लेखक के साहित्य-निर्माण को व्यक्तिगत उत्तरदायित्व कहकर टाल देती है।

(नया ख़ून, फ़रवरी, 1953 में प्रकाशित। नये साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र में संकलित)
दुष्यन्त कुमार का लेख 'साहित्य सत्ता की ओर क्यों देखता है?'

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गजानन माधव मुक्तिबोध
गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवंबर १९१७ - ११ सितंबर १९६४) हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवि, आलोचक, निबंधकार, कहानीकार तथा उपन्यासकार थे। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है।