मौत हमेशा से मुझे बेहद रोचक जान पड़ी है। बचपन में जब पहली बार अपने एक फूफाजी की मौत की ख़बर सुनी तो चुप खड़ा रहा। ये ख़बर सुनाते वक़्त, मेरी माँ की आँखों में आँसू थे जो मेरे लिये किसी भी मौत से ज़्यादा दुखद थे। फिर भी मौत को जज़्ब करना आसान नहीं था।

फूफाजी की दाढ़ी हमेशा मेरे गालों में चुभती थी, जब जब वो मुझे गले लगाते थे। मुझे उस वक़्त सिर्फ़ इतना अहसास हुआ कि अब वो दाढ़ी कभी नहीं चुभेगी। मौत का अर्थ सिर्फ़ दाढ़ी की चुभन का ग़ायब होना था। आज जब भी आईने में ख़ुद को देखता हूँ, कभी कभी वो, दाढ़ी का चुभना, याद आ जाता है।

हमारी संस्कृति में मौत को जीवन का विलोम नहीं बोला गया। उसे जीवन का शाश्वत सत्य बताया गया। मौत जीवन का एक हिस्सा थी। मेरे मन में ये बात कई किताबों, ग्रंथों और लोकोक्तियों से होती हुई गहरी पैठ गई। हर जीवात्मा गेंहू के दानों सी लगने लगी। मिट्टी में दाने गिरते हैं, पौधे उगते हैं, फ़सलें लहलहाती हैं, दाने आते हैं, कुछ दाने मिट्टी में गिर जाते हैं। मौत जीवन का सौंदर्य स्थापित करती है, ये सोचना मुझे बहुत भाता था।

थोड़ा बड़ा होने पर अपनी मौसी को जाते हुए देखा। जहाँ मैं अपने स्कूल में तिरंगा लहरा रहा था, वहीं मेरे घर को दुख की भीषण लहरों ने डुबा दिया था। घर आने पर जब दीदी ने मौसी के बारे में बताया, मैं अपनी जगह खड़ा रह गया। ऐसा लगा, जैसे मेरे पेट में कोई भारी सा पत्थर गिरता चला जा रहा है, जिसके साथ साथ एक अंतहीन खाई में, गिरती जा रही हैं, मौसी की यादें, उनकी हँसी, उनकी लड़ाई।

मौत एक ख़ालीपन पैदा कर देती है और हम जीवन भर इस रीते को पाटने की कोशिश करते रहते हैं। इस रीते को हम गुज़रते वक़्त की चादरों से ढँक देते हैं पर रीतापन हमेशा बाहर निकल जाता है। हमारे आँसूओं में पानी और नमक के अलावा सिर्फ़ यही ख़ालीपन रहता है। हम इस सत्य को अस्वीकार करने का प्रयास करते हैं कि हमें मौत हमेशा से स्वाभविक लगती है।

गाँव में किसी बच्चे के गिरने पर हम ज़मीन को मार कर कहते हैं, “लो, कुछ नहीं हुआ! चींटी मर गई।”

मौत की महत्ता, मरने वाले पर निर्भर करती है।

हम जब किसी अनजाने की मौत से भी दुःखी होते हैं तो वो दुख जाना पहचाना होता है। हमने मौत को अपने जीवन में इतना बड़ा स्थान दिया कि हम जीते जी मरने लगे। मौत ने धर्म को पैदा किया और धर्म ने मौत को बेचा। हमने धर्म ख़रीद लिया और मौत को किसी खूँटी पर टाँग दिया। जब खूँटी से मौत टपकती है, हम स्तब्ध रह जाते हैं। दरअसल, हमें मौत पर दुख कम, उसकी आकस्मिकता पर आश्चर्य ज़्यादा होता है।

जैसे अंधकार को स्वीकारना, प्रकाश को परिभाषित करने की, पहली सीढ़ी है। मौत को स्वीकारना, जीवन को सारगर्भित बनाने का, पहला क़दम है। मैंने मौत स्वीकार ली है इसीलिए मैं ज़्यादा जीवित बना रहता हूँ।

कल मेरे घर के सामने दो पिल्लों की मौत हुई। फिर से, पेट में एक पत्थर गिरता चला गया। आँखें रीत गयीं। कुछ ख़ालीपन और गहरा गया। चाहे कोई भी इस दुनिया से जाये, कुछ हिस्सा ज़िंदगी का भी ले जाता है। हम ज़िंदा रहते हुए भी किश्तों में मरते रहते हैं वरना हम ज़िंदा नहीं रह पाते। मेरे अंदर दो पिल्लों की जगह आज ख़ाली हो गई। रात गुज़र गई।

बाकी अभी, बचे हुए तीन पिल्ले पूँछ हिला रहे हैं। मैं नाश्ता कर चुका हूँ। मौत पर लिख रहा हूँ। मौत किसी बादल से टिककर मुस्कुरा रही है और ज़िंदगी फ़सलों में लहलहा रही है।

हमारा पूरा जीवन मृत्यु के उत्सव की तैयारी के सिवाय, कुछ भी नहीं है।

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