एक पेड़ गिराकर हर बार
मृत्यु की एक नयी परिभाषा गढ़ी जाती है
तुम्हारी छोड़ी गयी साँसों पर ही ज़िन्दा है जो
उसके काट दिये जाने से
उम्र की सरहदें भी सिकुड़ती जाती हैं।
काट दोगे किसी बरगद की बाँहें तो
हवा के बेख़ौफ़ झोंके रोज़ सनसनी मचायेंगे
उखाड़ फेंकोगे गर ज़मीन से एक भी जड़
भूख से उपजे ख़ंज़र तुम्हारा ख़ून बहायेंगे।
बेघर परिन्दों के मुकद्दस घरौंदें
रौंद देने से चहक बुलबुल की रोती है ख़्वाब में
भूल जाती हैं ललचाई हुई क़ौमें
एक आग भी होती है फूलों के हिज़ाब में।
ज़रूरत पर एक बूँद की, समन्दर लाते हैं
चल नहीं सकते मगर दुनिया चलाते हैं
जो बीज बनकर दफ़न होना जानते हैं
वो दरख़्त बनकर कभी भी उग जाते हैं।
सुनी होगी चिपको वूमैन गौरा के साहस की कथा
जिसकी याद में सुबकते हैं हिमाचल के हज़ारों देवदार
उत्तराखण्ड के जंगलों मे लगती है जब-जब भी आग
झुलसे हुए पेड़ करते हैं किसी बहुगुणा का इन्तजार।
बरगद, नीम, शहतूत, आम, बाँस ओ’ शीशम हो
सागवान, ख़ेजड़ी, तुलसी, चंदन और सफ़ेदा हो
हर तरफ़ नज़र में जिसकी गुलाब, पलाश, गेंदा हो
चाहता हूँ एक अमीर ख़ुसरो फिर से पैदा हो
जो कहीं भी बैठे, लेटे और कहता-कहता ना रूके
“अगर फिरदौस बर रू-ए-जमीं अस्त
अमीं अस्तो अमीं अस्तो अमीं अस्त।”
यह भी पढ़ें:
मुदित श्रीवास्तव की कविता ‘पेड़ों के छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव’
विशाल अंधारे की कविता ‘मैं पहाड़ होना चाहता हूँ’