‘Jiske Sang Bazar Ho Liya’
a poem by Shiva
जिसके संग बाज़ार हो लिया
उसका बेड़ा पार हो लिया
नौ सौ चूहे खाकर बिल्ला
हज को फिर तैयार हो लिया
कपड़े लत्ते, बोली बानी
जल, जंगल और ज़मीं यानी
सबकी रेहड़ी सजा खड़े हैं
बिरला, टाटा, और अम्बानी
लोकशाही से लोक बेच के
फुटकर लज्जा थोक बेच के
घर-घर घूमे बना फ़क़ीरा
बहुमत की सरकार हो लिया
जिसके संग बाज़ार हो लिया
पूँजी-प्रेम में नीति पड़ गयी
राज बचा बस नीति सड़ गयी
जिसकी लाठी, भैंस उसी की
बात इसी पर दुनिया अड़ गयी
सभी गरीबों होश में आओ
धरम कमाओ, धरम ही खाओ
कहे बुर्जुआ छिछली माया
पर मेरा अधिकार हो लिया
जिसके संग बाज़ार हो लिया
चुप कर लब आज़ाद नहीं हैं
कोई दबी फ़रियाद नहीं है
क़ैद क़फ़स में कई बुलबुलें
गीत मगर कोई याद नहीं है
कौन है बंधुआ, कौन है भूखा?
कहाँ जातियाँ, कौन सा सूखा?
आँखों पर बादल की ऐनक
चढ़ा के मन राडार हो लिया
जिसके संग बाज़ार हो लिया!
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