बचपन में वह नास्तिक नहीं था,
पिता को देखकर याद आ जाया
करते थे देवता
सुन रखी थीं जिनकी कहानियाँ
माँ से,
पत्थर हुई औरत का आख्यान पढ़कर
उसने यह जाना—
शोषण की जड़ कितनी पुरानी है
धीरे-धीरे भ्रम घुलने लगा
पलक झपकते पीले पत्ते
संवत्सर के झर-झर-झर ढेर होने लगे,
मन के तहख़ाने में
धुएँ का दमामा बहस
करने लगा
कीर्तन-मँजीरे से,
गरुड़ और बाघम्बर पर बैठे देवता
भू-लुंठित हो चले
तब भी वह संशयवादी नहीं हुआ।
पिता को जाना ही जाना था
उस उड़ान पर
जो हर थकान के बावजूद
भरनी ही पड़ती है
अंततः
अकेले अकेलों की बस्ती में।
रतजगा
बेसुरा शोर आ रहा था जिस ओर से
वह गया करने पड़ताल
क्या विधि हो
उसके अंतिम संस्कार की
अभी-अभी सो गया है
जो प्रत्यूषवेला में
अपनी ही धुन से ध्वस्त
अकेलों के झुंड ने
उत्तर ही नहीं दिया उसके
अनगढ़ रुक्ष, अटपटे सवाल का
वह अकेला लौट आया
अकेलों की गुमनाम टोली से
कहीं किसी पंडित का ठीहा
तलाशता
पहला पंडित देवी मंदिर का
पेचिश में पड़ा था।
साफ़ मना कर गए
आर्यसमाजी
उनका ख़ुद का जलसा था।
सनातनी
गरुड़-पुराण पढ़ने आ सकता था
अगले दिन
शव-संस्कार से उसे एतराज़ था
और सबसे पास का
श्मशान
पता चला फ़ोन करने पर
आरक्षित हो चुका था शाम सात तक।
कितने लोग इतने कम
अंतराल में
छोड़ जाते हैं रोज़-रोज़ दुनिया
वह सोचता रहा बैठा सिरहाने
मृत जन्मदाता के।
हारकर, फ़ोन किया
एक-दो मित्रों को
जो आ पाए शाम तक।
ख़ासी बहस के बाद तय हुआ—
दाह संस्कार विधिवत ही होगा
वह भी तत्काल
कल शहर में हड़ताल है
दक्षिण दिल्ली में संस्कृत विद्यापीठ है
वहाँ कर्मकांड भी पढ़ाते हैं
क्यों न किसी नवसिखुए को पकड़ा जाए
चले हम चौराहे पर, गाड़ियाँ
गाड़ियों के पीछे
रोक दिया हमें पुलिसवालों ने
पी. एम. का क़ाफ़िला गुज़रना था
हमने देखा एक
लँगड़ा मज़दूर कंधे पर रक्खे नसैनी
चाह रहा था पार करना
चौड़ा रास्ता
धपसट में गिर पड़ा
एक साथ शब्दों के बुलबुले
रास्ता, नसैनी
लँगड़ा मज़दूर
रुका हुआ क़ाफ़िला जनता का
किसी एक काग़ज़ी
जननायक के इंतज़ार में…
कैलाश वाजपेयी की कविता 'हत्यारा'