‘Kaalantran’, a poem by Sanwar Daiya
सैकिण्ड से मिनट
और घण्टे और दिन और सप्ताह
और पखवाड़े और महीने और वर्ष
इसी तरह बनते जा रहे हैं
बिना किसी अर्थ या संवेदन या स्पन्दन या पुलक के
और हम घोषणा करते हैं कि हम जीवित हैं!
घर और दफ़्तर के बीच
शटल की तरह घूमता रहता हूँ मैं
गणितीय निष्कर्षों की तरह लिख सकता हूँ
जीवन में भी कुछ सूत्र:
…जैसे ज़रूरतें और ज़िम्मेदारियाँ आदमी को
पुर्ज़ा बनाती हैं
…कि भूख की भट्टी में सारे आदर्श जल जाते हैं
सूखी लकड़ियों की मानिन्द
कि जीवन की सड़क पर
आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में भाग लेने के बाद
मैं सहर्ष स्वीकार करने लगा हूँ कि
सही बातें सिर्फ़ दीवारों पर पोस्टरों के रूप में
शोभा देती हैं!
अब जब कभी अकेले में
मेरे मस्तिष्क में फड़फड़ाते हैं बचपन में पढ़ी पुस्तकों
के पृष्ठ
तर्क के पेपरवेट से उन्हें दबाकर मैं
दूसरों के धब्बों को ‘मेग्नीफाइंग ग्लास’ से
देखने और दिखाने लगता हूँ!
शीतल हवा के झोकों के साथ
नये स्वेटर या गर्म कोट की समस्या आ खड़ी होती है
तुम्हारे चिकने शरीर पर हाथ फेरते समय
शरीर की नसें झनझनाने की जगह
रसोई में रखे ख़ाली डिब्बे बजने लगते हैं
चाँदनी में टहलते हुए
या तुम्हारे जूड़े में फूल टाँकते हुए
जब भी गीत गुनगुनाने के लिए हिलाता हूँ होंठ
मुँह से प्रसारित होने लगते हैं बाजार भाव
और इसी बीच
शटल कुछ और तेज़ गति से
आने-जाने लगता है
और सैकिण्ड से मिनट
और घण्टे और दिन और सप्ताह
और पखवाड़े और महीने और वर्ष
इसी तरह बनते रहते हैं
बिना किसी अर्थ या संवेदन या स्पन्दन या पुलक के!
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