‘Kabadkhane Mein’, a poem by Nirmal Gupt
किताबों के ढेर में से
अपने लिए अदद इबारत ढूँढना
वैसा ही है जैसे
कलकल कर बहती नदी में से
चुल्लू भर निर्मल जल
भर लेने की हठ करना
जहाँ-तहाँ काग़ज़ के पुर्ज़ों पर लिखी
कविताओं में से
एकाध आधी-अधूरी पंक्ति
तलाश लेना भी वैसा ही है
जैसे पा जाना
अपनी आत्ममुग्धता के लिए
कोई भूला बिसरा टोटका
मन के सघन वर्षावन में
रोज़ उगते हैं अनगिन
नीले पीले बैंगनी फूल
मादकता का नया मुहावरा गढ़ते
कंटीले अहसास के साथ
स्मृतियों को लहूलुहान करते
वक़्त की हथेली से झड़ रही है उम्र
बेआवाज़ बेसाख़्ता
कामनाएँ मौजूद हैं देह में
पूरी ढिठाई के साथ
समय सिद्ध नुस्खों की पाण्डुलिपि के
जर्जर पन्नों को पलटतीं
वक़्त के कबाड़ख़ाने में
सीलन है, अँधेरा है
ठण्डक है, आद्रता है
शरीर में झुरझुरी पैदा करती,
ऐसे में हो जाती हैं अक्सर
पढ़ी लिखी बातें बेकार।