‘Kabhi Kabhi Stree Hona Abhishaap Lagta Hai’, a poem by Rupam Mishra

कितनी चीज़ें हैं जिन्हें मैं कभी
ठीक-ठीक समझ नहीं पायी
पर उनसे उदासीन भी इतना रही कि
आर-पार देखने का कभी जी नहीं किया

कितने द्विअर्थी सम्वाद थे
जिन्हें ज़हर की तरह पी गयी
और भीतर ही शोक मनाया
किसी श्रेष्ठता का धप्प से नीचे गिर जाने का
पर कभी निर्दोष पर उसकी घृणा जाहिर नहीं की

कितना भी ख़ुद को बहलाती हूँ
पर कभी-कभी स्त्री होना अभिशाप लगता है,
देह में छुपा एक कोमल मन भी है
उसे बींध देते हो अपनी लिप्सा से

अपनी धूर्तता से ख़ुद को तो नंगा करते ही हो
और मूर्खता से हमारे शील-संकोच को
सहमति का भ्रम बना लेते हो

कभी सोचा है तुमने? नहीं भाता हमें
हर किसी से प्रणय निवेदन सुनना!
मन पर ठक्क से रंज लगता है
छद्म सम्बन्ध या दोस्ती के आवरण में
लिपटा फ़रेब देखकर

कितनी पीड़ाओं को पार करके
हम तुम्हारे समकक्ष बैठने आते हैं
तुम्हारी प्रबुद्धता को हम मुग्धता से देखते हैं
और तुम देखते हो देह
और वहाँ से धकेलने का मौक़ा

कभी करना आत्मसमीक्षा
शायद शर्म आ जाए अपने छल पर
और अंतरात्मा कचोटने लगे
तो लौटकर माफ़ी माँग लेना
तुम फिर से मनुष्य बन जाओगे
और उनके जलते ज़ख्म भर जाएँगे

ऐसा नहीं कि तुम किसी भी स्त्री का आदर नहीं करते!
करते हो मान अपनी माँ बहन बेटी पत्नी
या उस पहली प्रेमिका का जिसे आजतक नहीं भूले!

पर ये कहीं टकराने वाली लड़कियों को
तुम उस कटेगरी में नहीं रखते
मानो ये फ़्लर्ट करने के लिए ही बनी हैं!

ये अज़ाब है हमारी फ़ितरत का कि
हमें तुम्हारे टूटे हृदय देखकर मोह होता है!
तुम्हें हमारे आहत अंतर में अच्छा अवसर दिखता है!

एक विडम्बना की दीठि से तुम तिलमिलाए हो
कि तुम्हारी युगों की प्रपंच और पिपासा
जिसपर सिर्फ़ तुम्हारा हक़ था
कुछ स्त्रियों ने क्यों अपनाया!?

फिर भी तुम्हारे दिये हुए
सारे संतापों का श्राप ढोती स्त्री के लिए
तुम्हारा प्रेम प्राणवायु होता है!

क्योंकि नियंता ने
शायद तुम्हें प्रेम करने के लिए ही उसे बनाया है