मृत्यु का भय
ईश्‍वर के भय को सींचता रहता है
ओ मेरे कवि
प्रार्थनाएँ करते-करते सदियों के पंख
झड़ चुके हैं
ऋतुचक्रों पर फफूँद बैठी है
ईश्‍वर ग़रीबों की तरफ़ से
पत्थर दिल हो चुका है
उसने आँख, कान बंद कर लिए हैं
जब बरसती हैं स्वर्ण-मुद्राएँ
वहाँ वह क़ैद में ख़ुश है
लेकिन हज़ारों-लाखों भूखे और तंगदस्त
उससे बहतर ज़िन्दगी की उम्मीद किये
पुराना रथ खींच रहे हैं
जो शासन करता है
उसे ईश्वर का सहारा चाहिए
जिससे वह भूखों को
दबाकर रख सके।
देखता हूँ डरे हुए, कमज़ोर असहाय लोगों की
ठण्डी आहों से निकलता धुआँ
एक ऐसी गाढ़ी अँधेरी रात
जो सुबह की उम्मीद
खो चुकी है
कहाँ हो मेरे ईश्‍वर
कोहरा है इतना घना
अपने सामने के चेहरे भी
नहीं देख पाता।
क्रूर अत्याचारी दैत्य का जबड़ा
लगातार खुल रहा है
एक ऐसी आँधी
जो कभी ख़त्म नहीं होना चाहती
कहाँ हो तुम!

***

विजेन्द्र की कविता 'वहाँ देखने को क्या था'

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विजेन्द्र
वरिष्ठ कवि व आलोचक।

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